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________________ मगवान की सेवा में असुरकूमार देवों का आगमन] [83 पत्तलनिम्मला, ईसीसिय-रत्त-तंबणयणा, गरुलायय-उज्जु-तुंग-णासा, ओयवियसिलप्पवाल-बिबफलसण्णिभाहरोहा, पंडुरससिसयल-विमल-णिम्मलसंख-गोखीरफेण-दगरय-मुणालिया-धवलदंतसेढी, हुयवह-णिद्धत-धोय-तत्त-तवणिज्ज-रत्ततलतालुजीहा, अंजण-घण-कसिण-त्यग-रमणिज्ज-णिद्ध-केसा, वामेगकुडलधरा, प्रदचंदणाणुलित्तगत्ता, ईसीसिलिधपुप्फप्पगासाई असंकिलिढाई सुहमाई वत्थाई पवरपरिहिया, वयं च पढमं समइक्कता, बिइयं च असंपत्ता, भद्दे जोधणे वट्टमाणा, तलभंगय-तुडिय -निम्मलमणिरयण-मंडियभुया, दसमुद्दामोडयमहत्था, चुलामणिचिधगया, सुरूवा, महिड्रिया, महज्जुइया, महब्बला, महायसा, महासोक्खा, महाणुभागा, हारविराइयवच्छा, कडगतुडियर्थभियभुया, अंगय-कुडल-मटुगंडतला, कण्णपीढधारी, विचित्तहत्थाभरणा, विचित्तमालामउलिमउडा, कल्लाणगपवरवत्थपरिहिया, कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणा, भासुरबोंदी, पलंबवणमालधरा, दिवेणं वग्णणं, दिन्वेणं गंधणं, दिव्वेणं रूवेणं, एवं-फासेणं, संघाएणं, संठाणेणं, दिवाए इड्डीए, जुईए, पभाए, छायाए, अच्चीए, दिवेणं तेएणं दिव्वाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा, पभासेमाणा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं प्रागम्मागम्म रत्ता, समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति, करेत्ता वंति, णमंसंति, (बंदित्ता) णमंसित्ता [साई साइं जामगोयाई सावेन्ति] पच्चासणे, णाइदूरे सुस्ससमाणा, णमंसमाणा, अभिमुहा, विणएणं पंजलिउडा पज्जुवासंति / / ३३-उस काल, उस समय श्रमण भगवान महावीर के पास अनेक असुरकुमार देव प्रादुर्भूतप्रकट हुए / काले महानीलमणि, नीलमणि, नील की गुटका, भैसे के सींग तथा अल उनका काला वर्ण तथा दीप्ति थी। उनके नेत्र खिले हुए कमल सदृश थे। नेत्रों की भौंहें (सूक्ष्म रोममय तथा) निर्मल थीं। उनके नेत्रों का वर्ण कुछ-कुछ सफेद, लाल तथा ताम्र जैसा था। उनकी नासिकाएँ गरुड के सदृश, लम्बी, सीधी तथा उन्नत थीं। उनके होठ परिपुष्ट भूगे एवं बिम्ब फल के समान लाल थे। उनकी दन्तपंक्तियाँ स्वच्छ--निर्मल-कलंक शून्य चन्द्रमा के टुकड़ों जैसी उज्ज्वल तथा शंख, गाय के दूध के भाग, जल कण एवं कमलनाल के सदृश धवल-श्वेत थीं। उनकी हथेलियाँ, पैरों के तलवे, तालु तथा जिह्वा—अग्नि में गर्म किये हुए, धोये हुए पुन: तपाये हुए, शोधित किये हुए निर्मल स्वर्ण के समान लालिमा लिये हुए थे। उनके केश काजल तथा मेघ के सदृश काले तथा रुचक मणि के समान रमणीय और स्निग्ध-चिकने, मुलायम थे। उनके बायें कानों में एक-एक कुण्डल था / (दाहिने कानों में अन्य आभरण थे) उनके शरीर आर्द्र-गीले-घिसकर पीठी बनाये हुए चन्दन से लिप्त थे। उन्होंने सिलीध्र-पष्प जैसे कछ-कछ श्वेत या लालिमा लिये हए श्वेत. सक्षममहीन, असंक्लिष्ट-निर्दोष या ढोले वस्त्र सुन्दर रूप में पहन रखे थे। वे प्रथम वय-बाल्यावस्था को पार कर चुके थे, मध्यम वय-परिपक्व युवावस्था नहीं प्राप्त किये हुए थे, भद्र यौवन-भोली जवानी-किशोरावस्था में विद्यमान थे। उनकी भुजाएँ तलभंगकों-बाहुओं के आभरणों, त्रुटिकाओं-बाहुरक्षिकाओं या तोड़ों, अन्यान्य उत्तम आभूषणों तथा निर्मल-- उज्ज्वल रत्नों, मणियों से सुशोभित थीं। उनके हाथों की दशों अंगुलियाँ अंगूठियों से मंडित अलंकृत थीं। उनके मुकुटों पर चूडामणि के रूप में विशेष चिह्न थे। वे सुरूप-सुन्दर रूपयुक्त, परम ऋद्धिशाली, परम धुतिमान्, अत्यन्त बलशाली, परम यशस्वी, परम सुखी तथा अत्यन्त सौभाग्यशाली थे। उनके वक्षःस्थलों पर हार सुशोभित हो रहे थे। वे अपनी भुजाओं पर कंकण तथा भुजाओं को सुस्थिर बनाये रखनेवाली प्राभरणात्मक पट्टियाँ एवं अंगद भुजबंध धारण किये हुए थे। उनके मृष्ट-केसर, कस्तुरी आदि से मण्डित-चित्रित कपोलों पर कुडल व अन्य कर्णभूषण शोभित थे / वे विचित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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