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________________ 82] [औपपातिकसूत्र रूप प्रचण्ड-भयानक, अत्यन्त दुष्ट-हिंसक जल-जीवों से आहत होकर ऊपर उछलते हुए, नीचे गिरते हुए, बुरी तरह चीखते-चिल्लाते हुए क्षुद्र जीव-समूहों से यह (समुद्र) व्याप्त है / वही मानो उसका भयावह घोष या गर्जन है। अज्ञान ही भव-सागर में घमते हए मत्स्यों के रूप में है। अनुपशान्त इन्द्रिय-समूह उस में बड़ेबड़े मगरमच्छ हैं, जिनके त्वरापूर्वक चलते रहने से जल, क्षुब्ध हो रहा है-उछल रहा है, नृत्य सा कर रहा है, चपलता-चंचलतापूर्वक चल रहा है, घूम रहा है। यह संसार रूप सागर अरति-संयम में अभिरुचि के अभाव, भव, विषाद, शोक तथा मिथ्यात्त्व रूप पर्वतों से संकुल व्याप्त है। यह अनादि काल से चले आ रहे कर्म-बंधन, तत्प्रसूत क्लेश रूप कर्दम के कारण अत्यन्त दुस्तर--दुर्लध्य है। यह देव-गति, मनुष्य-गति, तिर्यक-गति तथा नरकगति में गमनरूप कुटिल परिवर्त-जलभ्रमियुक्त है, विपुल ज्वार सहित है। चार गतियों के रूप में इसके चार अन्त-किनारे, दिशाएँ हैं। यह विशाल, अनन्त-अगाध, रोद्र तथा भयानक दिखाई देने वाला है। इस संसार-सागर को वे शीलसम्पन्न अनगार संयमरूप जहाज द्वारा शीघ्रतापूर्वक पार कर रहे थे। वह (संयम-पोत) धृति-धैर्य, सहिष्णुता रूप रज्जू से बँधा होने के कारण निष्प्रकम्प-सुस्थिर था / संवर–आस्रव-निरोध-हिंसा आदि से विरति तथा वैराग्य-संसार से विरक्ति रूप उच्च कूपक-ऊँचे मस्तूल से संयुक्त था। उस जहाज में ज्ञान रूप श्वेत-निर्मल वस्त्र का ऊँचा पाल तना हुआ था। विशुद्ध सम्यक्त्व रूप कर्णधार उसे प्राप्त था। वह प्रशस्त ध्यान तथा तप रूप वायु से अनुप्रेरित होता हुआ प्रधावित हो रहा था शीघ्र गति से चल रहा था। उसमें उद्यम-अनालस्य, व्यवसाय-सुप्रयत्न तथा परखपूर्वक गृहीत निर्जरा, यतना, उपयोग, ज्ञान, दर्शन (चारित्र) तथा विशुद्ध व्रत रूप श्रेष्ठ माल भरा था। वीतराग प्रभु के वचनों द्वारा उपदिष्ट शुद्ध मार्ग से वे श्रमण रूप उत्तम सार्थवाह-दूर-दूर तक व्यवसाय करने वाले बड़े व्यापारी, सिद्धिरूप महापट्टन-बड़े बन्दरगाह की ओर बढ़े जा रहे थे। वे सम्यक् श्रुत-सत्सिद्धान्त-प्ररूपक प्रागम-ज्ञान, उत्तम संभाषण, प्रश्न तथा उत्तम आकांक्षा-सद्भावना समायुक्त थे अथवा वे सम्यक् श्रुत, उत्तम भाषण तथा प्रश्नप्रतिप्रश्न आदि द्वारा उत्तम शिक्षा प्रदान करते थे। वे अनगार ग्रामों में एक-एक रात तथा नगरों में पाँच-पाँच रात प्रवास करते हुए जितेन्द्रिय-इन्द्रियों को वश में किये हुए, निर्भय-मोहनीय प्रादि भयोत्पादक कर्मों का उदय रोकने वाले, गतभय---भय से अतीत-वैसे भय को निष्फल बनाने वाले, सचित्त-जीवसहित, अचित्त-- जीवरहित, मिश्रित–सचित्त-अचित्त मिले हुए द्रव्यों में वैराग्ययुक्त-उनसे विरक्त रहने वाले, संयत–संयमयुक्त, विरत-हिंसा आदि से निवृत्त या तप में विशेष रूप से रत-अनुरागशील (लगे हुए), या जगत् में औत्सुक्यरहित अथवा रजस् या पापरहित, मुक्त-प्रासक्ति से छूटे हुए, लघुकहलके अथवा न्यूनतम उपकरण रखने वाले, निरवकांक्ष-अाकांक्षा-इच्छा रहित, साधु-मुक्ति के साधक एवं निभूत-प्रशान्त वृत्तियुक्त होकर धर्म की आराधना करते थे। भगवान् की सेवा में असुरकुमार देवों का आगमन ३३-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवनो महावीरस्स बहवे असुरकुमारा देवा अंतिथं पाउन्भविस्था, काल-महाणील-सरिस-णीलगुलिय-गवल-प्रयसि-कुसुमप्पगासा, वियसियसयवत्तमिव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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