________________ [औपपातिकसूत्र 7. गण की पाशातना नहीं करना। 8. संघ की पाशातना नहीं करना / 9. क्रियावान् की आशातना नहीं करना / 10. सांभोगिक-जिसके साथ वन्दन, नमन, भोजन आदि पारस्परिक व्यवहार हों, उस गच्छ के श्रमण या समान प्राचारवाले श्रमण की आशातना नहीं करना / 11. मति-ज्ञान की प्राशातना नहीं करना / 12. श्रुत-ज्ञान की पाशातना नहीं करना / 13. अवधि-ज्ञान की प्राशातना नहीं करना। 14. मन:पर्यव-ज्ञान को प्राशातना नहीं करना / 15. केवल-ज्ञान की प्राशातना नहीं करना / इन पन्द्रह की भक्ति, उपासना, बहुमान, गुणों के प्रति तीव्र भावानुरागरूप पन्द्रह भेद तथा इन (पन्द्रह) की यशस्विता, प्रशस्ति एवं गुण कीर्तन रूप और पन्द्रह भेद–यों अनत्याशातना-विनय के कुल पंतालीस भेद होते हैं / विवेचन-यहाँ प्रयुक्त प्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर, गण, तथा कुल का कुछ विश्लेषण अपेक्षित है, जो इस प्रकार है-- आचार्य वैयक्तिक, सामष्टिक श्रमण-जीवन का सम्यक निर्वाह, धर्म की प्रभावना, ज्ञान की आराधना, साधना का विकास तथा संगठन व अनुशासन की दृढ़ता आदि के निमित्त जैन श्रमण-संघ में निम्नांकित पदों के होने का उल्लेख प्राप्त होता है 1. प्राचार्य, 2. उपाध्याय, 3. प्रवर्तक, 4. स्थविर, 5. गणी, 6. गणधर, 7. गणावच्छेदक। इनमें प्राचार्य का स्थान सर्वोपरि है। संघ का सर्वतोमुखी विकास, संरक्षण, संवर्धन, अनूशासन आदि का सामूहिक उत्तरदायित्व प्राचार्य पर होता है। जैन वाङमय के अनुशीलन से प्रतीत होता है कि जैन संघ में प्राचार्य पद का आधार मनोनयन रहा, निर्वाचन नहीं। भगवान् महावीर का अपनी प्राक्तन परंपरा के अनुरूप इसी ओर झुकाव था / आगे भी यही परंपरा गतिशील रही / आचार्य ही भावो प्राचार्य का मनोनयन करते थे तथा अन्य पदाधिकारियों का भी / अब तक ऐसा हो चला आ रहा है। संघ की सब प्रकार की देख-भाल का मुख्य दायित्व आचार्य पर रहता है / संघ में उनका प्रादेश अन्तिम और सर्वमान्य होता है। प्राचार्य की विशेषताओं के संदर्भ में कहा गया है-- "प्राचार्य सूत्रार्थ के वेत्ता होते हैं। वे उच्च लक्षण युक्त होते हैं / वे गण के लिए मेढिभूत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org