________________ वीन्द्रिय और एकेन्द्रिय जीवों के दुःख ] [ 45 द्वीन्द्रिय जीवों के दुःख ३६-लय-जलय-किमिय-चंदणगमाइएसु य जाइकुलकोडिसयसहस्सेहि सहि अणूणएहि बेइंदियाणं तहि तहि चेव जम्मणमरणाणि अणुहवंता कालं संखेज्जग भमंति गैरइयसमाण-तिव्वदुक्खा फरिस-रसण-संपउत्ता। ३६-गंडूलक-गिडोला, जलौक-जोंक, कृमि, चन्दनक आदि द्वीन्द्रिय जीव पूरी सात लाख कलकोटियों में से वहीं-वहीं अर्थात विभिन्न कुलकोटियों में जन्म-मरण की वेदना का अनुभव करते हुए संख्यात हजार वर्षों तक भ्रमण करते रहते हैं / वहाँ भी उन्हें नारकों के समान तीव्र दुःख भुगतने पड़ते हैं / ये द्वीन्द्रिय जीव स्पर्शन और रसना-जिह्वा, इन दो इन्द्रियों वाले होते हैं। विवेचन-सूत्र का अर्थ स्पष्ट है / विशेषता इतनी ही है कि इनकी कुलकोटियां सात लाख हैं और ये जीव दो इन्द्रियों के माध्यम से तीव्र असाता वेदना का अनुभव करते हैं। एकेन्द्रिय जीवों के दुःख ४०–पत्ता एगिवियत्तणं वि य पुढवि-जल-जलण-मारुय-धणप्फइ-सुहुम-बायरं च पन्जत्तम. पज्जत्तं पत्तेयसरीरणाम-साहारणं च पतेयसरीरजीविएसु य तत्थमि कालमसंखेज्जगं भमंति प्रणंतकालं च प्रणंतकाए फासिदियभावसंपउत्ता दुक्खसमवयं इमं प्रणिठें पार्वति पुणो पुणो तहि तहि चेव परभवतरुगणगहणे। ४०-एकेन्द्रिय अवस्था को प्राप्त हुए पृथ्वीकाय, जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के दो-दो भेद हैं-सूक्ष्म और बादर, अर्थात् सूक्ष्मपृथ्वीकाय और बादरपृथ्वीकाय, सूक्ष्मजलकाय और बादरजलकाय आदि / इनके अन्य प्रकार से भी दो-दो प्रकार होते हैं, यथा-पर्याप्तक और अपर्याप्तक / वनस्पतिकाय में इन भेदों के अतिरिक्त दो भेद और भी हैं—प्रत्येकशरीर साधारणशरीरी। इन भेदों में से प्रत्येकशरीर पर्याय में उत्पन्न होने वाले पापी--हिंसक जीव असंख्यात काल तक उन्हीं-उन्हीं पर्यायों में परिभ्रमण करते रहते हैं और अनन्तकाय अर्थात साधारणशरीरी जीवों में अनन्त काल तक पुनः पुनः जन्म-मरण करते हुए भ्रमण किया करते हैं। ये सभी जीव एक स्पर्शनेन्द्रिय वाले होते हैं। इनके दुःख अतीव अनिष्ट होते हैं / वनस्पतिकाय रूप एकेन्द्रिय पर्याय में कायस्थिति सबसे अधिक-अनन्तकाल की है।' विवेचन-प्रकृत सूत्र में एकेन्द्रिय जीवों के दुःखों का वर्णन करने के साथ उनके भेदों और प्रभेदों का उल्लेख किया गया है / एकेन्द्रिय जीव मूलतः पाँच प्रकार के हैं-पृथ्वीकाय आदि / इनमें से प्रत्येक सक्षम और बादर के भेद से दो-दो प्रकार के होते हैं। वनस्पतिकाय के इन दो भेदों के अतिरिक्त साधारणशरीरी और प्रत्येकशरीरी, ये दो भेद अधिक होते हैं। इन का स्पष्टीकरण इस प्रकार है 1. अस्संखोसप्पिणिउस्सप्पिणी एगिदियाणं चउण्हं। ता चेव ऊ अणंता, वणस्सईए य बोद्धव्वा // -~-अभयदेव टीका पृ. २४-प्रागमोदयसमिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org