________________ [प्रश्नव्याकरणसूत्र : शु. 1, अं. 1 12 लाख कुलकोटियाँ मनुष्य देव 9 m1 // नारक जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच 123 // स्थलचर चतुष्पद पंचेन्द्रिय स्थलचर उरपरिसर्प पंचेन्द्रिया स्थलचर भुजपरिसर्प पंचेन्द्रिय खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच चतुरिन्द्रिय तिर्यंच त्रीन्द्रिय तिर्यच द्वीन्द्रिय तिर्यच पृथ्वीकायिक स्थावर अप्कायिक स्थावर तेज:कायिक स्थावर वायुकायिक स्थावर बनस्पतिकायिक स्थावर 28 // योग-१,९७५,०००० इनमें से चतुरिन्द्रिय जीवों की यहाँ नव लाख कुलकोटियाँ प्रतिपादित की गई हैं / जैसे नारक जीव नारक पर्याय का अन्त हो जाने पर पुनः तदनन्तर भव में नरक में जन्म नहीं लेते, वैसा नियम चतुरिन्द्रियों के लिए नहीं है / ये जीव मर कर वार-बार चतुरिन्द्रियों में जन्म लेते रहते हैं। संख्यात काल तक अर्थात् संख्यात हजार वर्षों जितने सुदीर्घ काल तक वे चतुरिन्द्रिय पर्याय में ही जन्म-मरण करते रहते हैं / उन्हें वहां नारकों जैसे तीव्र दुःखों को भुगतना पड़ता है / त्रीन्द्रिय जीवों के दुःख ३८-तहेव तेइंदिएसु कुथु-पिप्पीलिया-अधिकादिएसु य जाइकुलकोडिसयसहस्सेहि प्रहि अणूणएहि तेइंदियाणं हि तहि चेव जम्मणमरणाणि अणुहवंता कालं संखेज्जगं भमंति रइयसमाणतिव्वदुक्खा फरिस-रसण-घाण-संपउत्ता। ३५-इसी प्रकार कुथु, पिपीलिका-चींटी, अधिका--दीमक प्रादि त्रीन्द्रिय जीवों की पूरी आठ लाख कुलकोटियों में से विभिन्न योनियों एवं कुलकोटियों में जन्म-मरण का अनुभव करते हुए (वे पापी हिंसक प्राणी) संख्यात काल अर्थात् संख्यात हजार वर्षों तक नारकों के सदृश तीव्र दुःख भोगते हैं / ये त्रीन्द्रिय जीव स्पर्शन, रसना और घ्राण-इन तीन इन्द्रियों से युक्त होते हैं। विवेचन-पूर्व सूत्र में जो स्पष्टीकरण किया गया है, उसी प्रकार का यहाँ भी समझ लेना चाहिए / त्रीन्द्रिय-पर्याय में उत्पन्न हुआ जीव भी उत्कर्षतः संख्यात हजार वर्षों तक' वार-बार जन्म मरण करता हुआ श्रीन्द्रिय पर्याय में ही बना रहता है / 1. अभयदेवटीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org