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________________ 42] [प्रश्नध्याकरणसूत्र : अ. 1, अ.१ __ इसी प्रकार अन्य पीड़ाएँ भी उन्हें चुपचाप सहनी पड़ती हैं। मारना, पीटना, दागना, भार वहन करना, वध-बन्धन किया जाना आदि-आदि अपार यातनाएँ हैं जो नरक से निकले और तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्याय में जन्मे पापी प्राणियों को निरन्तर भोगनी पड़ती हैं। कुछ मांसभक्षी और नरकगति के अतिथि बनने की सामग्री जुटाने वाले मिथ्यादृष्टि पापी जीव पशु-पक्षियों का अत्यन्त निर्दयतापूर्वक वध करते हैं। बेचारे पशु तड़पते हुए प्राणों का परित्याग करते हैं / कुछ अधम मनुष्य तो मांस-विक्रय का धंधा ही चलाते हैं। इस प्रकार तिर्यंचों की वेदना भी अत्यन्त दुस्सह होती है। ३४-मायापिइ-विपनोग-सोय-परिपीलणाणिय सस्थग्गि-विसाभिघाय-गल-गवलावलण-मारगाणि य गलजालुच्छिप्पणाणि य पउलण-विकप्पणाणि य जावज्जीविगबंधणाणि य, पंजरणिरोहणाणि य समूहणिग्घाडणाणि य घमणाणि य दोहिणाणि य कुवंडगलबंधणाणि य वाडगपरिवारणाणि य पंकजलणिमज्जणाणि य वारिप्पधेसणाणि य प्रोवायणिभंग-विसमणिवडणदवग्गिजालवहणाई य। ३५---(पूर्वोक्त दुःखों के अतिरिक्त तिर्यंचगति में) इन दुःखों को भी सहन करना पड़ता है माता-पिता का वियोग, शोक से अत्यन्त पीडित होना या श्रोत-नासिका आदि श्रोतोंनथुनों आदि के छेदन से पीड़ित होना, शस्त्रों से, अग्नि से और विष से आघात पहुँचना, गर्दन–गले एवं सींगों का मोड़ा जाना, मारा जाना, मछली आदि को गल-काँटे में या जाल में फंसा कर जल से बाहर निकालना, पकाना, काटा जाना, जीवन पर्यन्त बन्धन में रहना, पीजरे में बन्द रहना, अपने समूह–टोले से पृथक् किया जाना, भैस आदि को फूका लगाना अर्थात् ऊपर में वायु भर देना और फिर उसे दुहना-जिससे दूध अधिक निकले, गले में डंडा बाँध देना, जिससे वह भाग न सके, वाड़े में घेर कर रखना, कीचड़-भरे पानी में डुबोना, जल में घुसेड़ना, गडहे में गिरने से अंग-भंग हो जाना, पहाड़ के विषम-ऊँचे-नीचे-ऊबड़खाबड़ मार्ग में गिर पड़ना, दावानल की ज्वालाओं में जलना या जल मरना; आदि-आदि कष्टों से परिपूर्ण तिथंचगति में हिंसाकारी पापी नरक से निकल कर उत्पन्न होते हैं / ३६–एयं ते दुक्ख-सय-संपलित्ता गरगामो प्रागया इहं सावसेसकम्मा तिरिक्ख-पंचिंदिएसु पाविति पावकारी कम्माणि पमाय-राग-दोस-बहुसंचियाइं अईव अस्साय-कक्कसाई। ३६-इस प्रकार वे हिंसा का पाप करने वाले पापी जीव सैकड़ों पीड़ाओं से पीड़ित होकर, नरकगति से आए हुए, प्रमाद, राग और द्वेष के कारण बहुत संचित किए और भोगने से शेष रहे कर्मों के उदयवाले अत्यन्त कर्कश असाता को उत्पन्न करने वाले कर्मों से उत्पन्न दुःखों के भाजन बनते हैं / विवेचन--पंचेन्द्रिय तिर्यंचों को होने वाली यातनामों का उल्लेख करने के पश्चात् प्रस्तुत सूत्र में नारकीय जीवों की तिर्यंचगति में उत्पत्ति के कारण का निर्देश किया गया है। नारकों की आयु यद्यपि मनुष्यों और तिर्यंचों से बहुत अधिक लम्बी होती है, तथापि वह अधिक से अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण है / आयुकर्म के सिवाय शेष सातों कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति कोटाकोटी सागरोपमों की बतलाई गई है, अर्थात् प्रायुकर्म की स्थिति से करोड़ों करोड़ों गुणा अधिक है / तेतीस सागरोपम की आयु भी सभी नारकों की नहीं होती / सातवीं नरकभूमि में उत्पन्न हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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