________________ [प्रश्नव्याकरणसूत्र : 1. 1, म. 1 तत्त्वार्थसूत्र में प्राश्रव के पाँच भेद-(१) मिथ्यात्व, (2) अविरति, (3) प्रमाद, (4) कषाय, (5) योग माने हैं।' ___ कहीं-कहीं आश्रव के बीस भेद भी गिनाये गये हैं। प्रस्तुत तीन गाथाओं में से प्रथम गाथा में इस शास्त्र के प्रतिपाद्य विषय का उल्लेख कर दिया गया है, अर्थात यह प्रदर्शित कर दिया गया है कि इस शास्त्र में आस्रव और संवर की प्ररूपणा की जाएगी। 'सुभासियत्थं महेसीहिं (सुभाषितार्थं महर्षिभिः) अर्थात् यह कथन तीर्थंकरों द्वारा समीचीन रूप से प्रतिपादित है / यह उल्लेख करके शास्त्रकार ने अपने कथन को प्रामाणिकता एवं विश्वसनीयता प्रकट की है। जिसने कर्मबन्ध के कारणों-पासवों और कर्मनिरोध के कारणों को भलीभांति जान लिया, उसने समग्र प्रवचन के रहस्य को ही मानो जान लिया। यह प्रकट करने के लिए इसे 'प्रवचन का निष्यंद' कहा है। दसरी गाथा में बताया है प्रत्येक संसारी जीव को आस्रव अनादिकाल से हो रहा हैलगातार चल ल रहा है। ऐसा नहीं है कि कोई जीव एक बार सर्वथा प्रास्त्रवरहित होकर नये सिरे से पुनः प्रास्रव का भागी बने / अतएव प्रास्रव को यहाँ अनादि कहा है। अनादि होने पर भी प्रास्रव अनन्तकालिक नहीं है / संवर के द्वारा उसका परिपूर्ण निरोध किया जा सकता है, अन्यथा सम्पूर्ण अध्यात्मसाधना निष्फल सिद्ध होगी। यहाँ पर स्मरण रखना चाहिए कि प्रास्रव संततिरूप से--परम्परा रूप से हो अनादि है। इसमें आगे कहे जाने वाले पांच आस्रवों के नामों का भी उल्लेख कर दिया गया है। तृतीय गाथा में प्रतिपादित किया गया है कि यहाँ हिंसा प्रास्रव के संबंध में निम्नलिखित विषयों पर प्रकाश डाला जायेगा (1) हिंसा आस्रव का स्वरूप क्या है ? (2) उसके क्या-क्या नाम हैं, जिनसे उसके विविध रूपों का ज्ञान हो सके ? (3) हिंसारूप प्रास्रव किस प्रकार से किन-किन कृत्यों द्वारा किया जाता है ? (4) किया हआ वह आस्रव किस प्रकार का फल प्रदान करता है ? (5) कौन पापी जीव हिंसा करते हैं ? हिंसा-आस्रव के संबंध में प्ररूपणा की जो विधि यहाँ प्रतिपादित की गई है, वही अन्य आस्रवों के विषय में भी समझ लेनी चाहिये / प्राण-वध का स्वरूप २-~-पाणवहो णाम एसो जिहि भणियो-१ पावो 2 चंडो 3 रुद्दो 4 खुद्दो 5 साहसिप्रो 6 प्रणारियो 7 णिग्घिणो 8 जिस्संसो महन्भनो 10 पइमनो 11 अभिनो 12 बोहगओ 13 तासणओ 14 अणज्जो 15 उन्वेयणम्रो य 16 णिरत्यक्खो 17 णिद्धम्मो 18 णिप्पिवासो 19 1. मिध्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगास्तभेदाः / –अ. 8-1 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org