________________ [1] . आसवद्वार प्रथम अध्ययन : हिंसा १-जंबू ! इणमो अण्हय-संवर विणिच्छयं, पवयणस्स णिस्संदं / वोच्छामि णिच्छयत्थं, सुभासियत्थं महेसीहिं // 1 // पंचविहो पण्णत्तो, जिणेहि इह अण्हनो प्रणाईयो / हिंसामोसमवत्तं, अब्बभपरिग्गहं चेव / / 2 / / जारिसमो जं णामा, जह य कमो जारिसं फलं देइ / जे वि य करेंति पावा, पाणवहं तं णिसामेह // 3 // १-हे जम्बू ! प्रास्रव और संवर का भलीभाँति निश्चय कराने वाले प्रवचन के सार को मैं कहूंगा, जो महर्षियों-तीर्थंकरों एवं गणधरों आदि के द्वारा निश्चय करने के लिए सुभाषित हैसमीचीन रूप से कहा गया है // 1 // जिनेश्वर देव ने इस जगत् में अनादि आस्रव को पाँच प्रकार का कहा है-(१) हिंसा, (2) असत्य, (3) प्रदत्तादान, (4) अब्रह्म और (5) परिग्रह // 2 // प्राणवधरूप प्रथम प्रास्रव जैसा है, उसके जो नाम हैं, जिन पापी प्रणियों द्वारा वह किया जाता है, जिस प्रकार किया जाता है और जैसा (घोर दुःखमय) फल प्रदान करता है, उसे तुम सुनो // 3 // विवेचन-पा-अभिविधिना सर्वव्यापकविधित्वेन श्रौति-स्रवति वा कर्म येभ्यस्ते आश्रवाः / जिनसे प्रात्मप्रदेशों में कर्म-परमाणु प्रविष्ट होते हों उन्हें पाश्रव या आस्रव कहते हैं। प्रात्मा जिस समय क्रोधादि या हिंसादि भावों में तन्मय होती है उस समय प्राश्रव की प्रक्रिया संपन्न होती है। बंधपूर्व प्रवृत्ति की उत्तर अवस्था आश्रय है। प्रात्मभूमि में शुभाशुभ फलप्रद कर्म-बोजों के बोने की प्रक्रिया पाश्रव है। आश्रवों की संख्या और नामों के विषय में विविध प्रक्रियाएँ प्रचलित हैं स्थानांगसूत्र में एक, पांच छह आठ दस ग्राश्रव के प्रकार गिनाये हैं। 1. देखिए परिशिष्ट 1 2. पाठान्तर -पाणिवहं 3 स्थानांग-[१ 12. 5-109 6.16 812 10-11) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org