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________________ सीता] [269 प्राप्त और सुरक्षित रखे हुये वर को इस समय मांगना उचित समझा। महारानी कैकेयी ने राजा दशरथ से अपने पुत्र भरत को राज्य देने का वर माँगा। महाराजा दशरथ को अपनी प्रतिज्ञानुसार यह वरदान स्वीकार करना पड़ा। फलतः श्रीरामचन्द्रजी ने अपने पिता की आज्ञा का पालन करने और भरत को राज्य का अधिकारी बनाने के लिए सीता और लक्ष्मण के साथ वनगमन किया। वन में भ्रमण करते हुए वे दण्डकारण्य पहुँचे और वहाँ पर्णकुटी बना कर रहने लगे। एक दिन लक्ष्मणजी धूमते-घूमते उस वन के एक ऐसे प्रदेश में पहुँचे, जहाँ खरदूषण का पुत्र शम्बूक बांसों के बीहड में एक वृक्ष से पैर बांधकर औंधा लटका चन्द्रहासखड्ग की एक विद्या सिद्ध कर रहा था / परन्तु उसको विद्या सिद्ध न हो सकी। एक दिन लक्ष्मण ने आकाश में अधर लटकते हुये चमचमाते चन्द्रहासखड्ग को कुतूहलवश हाथ में उठा लिया और उसका चमत्कार देखने की इच्छा से उसे बांसों के बीहड़ पर चला दिया। संयोगवश खरदूषण और चन्द्रनखा के पुत्र तथा रावण के भानजे शम्बूककुमार को वह तलवार जा लगी। बांसों के साथ-साथ उनका भी सिर कट गया। जब लक्ष्मणजी को यह पता चला तो उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुना। उन्होंने रामचन्द्रजी के पास जाकर सारा वृत्तान्त सुनाया। उन्हें भी बड़ा दुःख हुआ। वे समझ गये कि लक्ष्मण ने एक बहुत बड़ी विपत्ति को बुला लिया है। जब शम्बूककुमार के मार डाले जाने का समाचार उसकी माता चन्द्रनखा को मालूम हुआ तो वह क्रोध से आगबबूला हो उठी और पुत्रघातक से बदला लेने के लिये उस पर्णकुटी पर आ पहुँची, जहाँ राम-लक्ष्मण बैठे हुए थे। वह आई तो थी बदला लेने, परन्तु वहाँ वह श्री राम-लक्ष्मण के दिव्य रूप को देखकर उन पर मोहित हो गई। उसने विद्या के प्र युवती का रूप बना लिया और कामज्वर से पीड़ित होकर एक बार राम से तो दूसरी बार लक्ष्मण से कामाग्नि शांत करने की प्रार्थना की। मगर स्वदारसंतोषी, परस्त्रीत्यागी राम-लक्ष्मण ने उसकी यह जघन्य प्रार्थना ठुकरा दी। पुत्र के वध करने और अपनी अनुचित प्रार्थना के ठुकरा देने के कारण चन्द्रनखा का रोष दुगुना भभक उठा। वह सीधी अपने पति खरदूषण के पास आई और पुत्रवध का सारा हाल कह सुनाया। सुनते ही खरदूषण अपनी कोपज्वाला से दग्ध होकर वैर का बदला लेने हेतु सदल-बल दंडकारण्य में पहुँचा। जब राम-लक्ष्मण को यह पता चला कि खरदूषण लड़ने के लिये पाया है तो लक्ष्मण उसका सामना करने पहुँचे। दोनों में युद्ध छिड़ गया। उधर लंकाधीश रावण को जब अपने भानजे के वध का समाचार मिला तो वह भी लंकापुरी से आकाशमार्ग द्वारा दण्डकवन में पहुँचा। आकाश से ही वह टकटकी लगाकर बहुत देर तक सीता को देखता रहा / सीता को देखकर रावण का अन्तःकरण कामबाण से व्यथित हो गया। उसकी विवेकबुद्धि और धर्मसंज्ञा लुप्त हो गई। अपने उज्ज्वल कूल के कलंकित होने की परवाह न करके दुर्गतिगमन का भय छोड़कर उसने किसी भी तरह से सीता का हरण करने की ठान ली। सन्निपात के रोगी के समान कामोन्मत्त रावण सीता को प्राप्त करने के उपाय सोचने लगा। उसे एक उपाय सुझा। उसने अपनी विद्या के प्रभाव से जहाँ लक्ष्मण संग्राम कर रहा था, उस ओर जोर से सिंहनाद की ध्वनि की। राम यह सुनकर चिन्ता में पड़े कि लक्ष्मण भारी विपत्ति में फंसा है, अतः उसने मुझे बुलाने को यह पूर्वसंकेतित सिंहनाद किया है। इसलिए वे सीता को अकेली छोड़कर तुरन्त लक्ष्मण की सहायता के लिये चल पड़े। परस्त्रीलंपट रावण इस अवसर की प्रतीक्षा में था ही। उसने मायावी साधु का वेश बनाया और दान लेने के बहाने अकेली सोता के पास पहुँचा। ज्यों ही सीता बाहर आई त्यों ही जबरन उसका अपहरण करके अपने विमान में बैठा लिया और अाकाश-मार्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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