________________ 266] [प्रश्नव्याकरणसूत्र 'पढमस्स णं भंते ! सुयक्खंधस्स समणेणं जाव संपत्तेणं कइ अज्झयणा पण्णत्ता ?' 'जंबू ! पढमस्स सुयक्खधस्स समणेणं जाव संपत्तेणं पंच अज्झयणा पण्णत्ता।' 'दोच्चस्स णं भंते ! सुयक्खंधस्स ? एवं चेव / ' 'एएसि णं भंते ! अण्हय-संवराणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठ पण्णत्ते ?' तते णं अज्जसुहम्मे थेरे जंबूनामेणं अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे जंबू अणगारं एवं वयासी-- 'जंबू ! इणमो-' इत्यादि / सारांश-उस काल, उस समय चम्पा नगरी थी। उसके बाहर पूर्णभद्र चैत्य था , वनखण्ड था। उसमें उत्तम अशोकवृक्ष था। वहाँ पृथ्वी शिलापट्टक था। चम्पा नगरी का राजा कोणिक था और उसकी पटरानी का नाम धारिणी था। उस काल, उस समय श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी स्थविर आर्य सुधर्मा थे। वे जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, बलसम्पन्न, रूपसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चारित्रसम्पन्न, लज्जासम्पन्न, लाघवसम्पन्न, ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी, यशस्वी, क्रोध-मान-माया-लोभविजेता, निद्रा, इन्द्रियों और परीषहों के विजेता, जीवन की कामना और मरण की भीति से विमुक्त, तपप्रधान, गुणप्रधान, मुक्तिप्रधान, विद्याप्रधान, मन्त्रप्रधान, ब्रह्मप्रधान, व्रतप्रधान, नयप्रधान, नियमप्रधान, सत्यप्रधान, शौचप्रधान, ज्ञान-दर्शन-चारित्रप्रधान, चतुर्दश पूर्वो के वेत्ता, चार ज्ञानों से सम्पन्न, पांच सौ अनगारों से परिवत्त, पूर्वानपुर्वी से चलते. ग्राम-ग्राम विचरते चम्पा नगरी में पधारे / संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए ठहरे। उस काल, उस समय, आर्य सुधर्मा के शिष्य आर्य जम्बू साथ थे। वे काश्यपगोत्रीय थे। उनका शरीर सात हाथ ऊँचा था........" (यावत्) उन्होंने अपनी विपुल तेजोलेश्या को अपने में ही संक्षिप्त समा रक्खा था। वे आर्य सुधर्मा से न अधिक दूर और न अधिक समीप, घुटने ऊपर करके और नतमस्तक होकर संयम एवं तपश्चर्या से प्रात्मा को भावित कर रहे थे। एक बार आर्य जम्बू के मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई और वे आर्य सुधर्मा के निकट पहुँचे / आर्य सुधर्मा की तीन वार प्रदक्षिणा की, उन्हें वन्दन-स्तवन किया, नमस्कार किया। फिर वि दोनों हाथ जोड़कर-अंजलि करके, पर्युपासना करते हुए बोले-- (प्रश्न)-भंते ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने नौवें अंग अनुत्तरौपपातिक दशा का यह (जो मैं सुन का हूँ) अर्थ कहा है तो दसवें अंग प्रश्नव्याकरण का क्या अर्थ कहा है ? (उत्तर)-जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने दसवें अंग के दो श्रुतस्कन्ध कहे हैं—आस्रवद्वार और संवरद्वार / प्रथम और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पाँच-पाँच अध्ययन प्ररूपित किए हैं। (प्रश्न)-भंते ! श्रमण भगवान् ने प्रास्रव और संवर का क्या अर्थ कहा है ? तब आर्य सुधर्मा ने जम्बू अनगार को इस प्रकार कहा- / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org