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________________ अपरिग्रहव्रत को पाँच भावनाएँ] [253 सर्वथा मुक्त रहता है, चारित्र-परिणाम के विच्छेद से रहित होता है, अर्थात् उसका चारित्रपरिणाम निरन्तर विद्यमान रहता है, कभी भग्न नहीं होता। वह निरतिचार--निर्दोष चारित्र का धैर्यपूर्वक शारीरिक क्रिया द्वारा पालन करता है। ऐसा मुनि सदा अध्यात्मध्यान में निरत, उपशान्त भाव तथा एकाकी-सहायकहित अथवा रागादि से असंपृक्त होकर धर्म का आचरण करे / परिग्रहविरमणव्रत के परिरक्षण के हेतु भगवान् ने यह प्रवचन--उपदेश कहा है / यह प्रवचन प्रात्मा के लिए हितकारी है, आगामी भवों में उत्तम फल देने वाला है और भविष्य में कल्याण करने वाला है / यह शुद्ध, न्याययुक्त, अकुटिल, सर्वोत्कृष्ट और समस्त दुःखों तथा पापों को सर्वथा शान्त करने वाला है। विवेचन-प्रकृत पाठ स्पष्ट और सुबोध है। केवल एक ही बात का स्पष्टीकरण आवश्यक है। मुनि को ग्राम में एक रात और नगर में पाँच रात तक टिकने का जो कथन यहाँ किया गया है, उसके विषय में टीकाकार ने लिखा है'एतच्च भिक्षुप्रतिमाप्रतिपन्नसाध्वपेक्षया सूत्रमवगन्तव्यम् / -प्र. व्या. अागमोदय. पृ. 158 इसका प्राशय यह है कि यह सूत्र अर्थात विधान उस साधु के लिए जानना चाहिए जिसने भिक्षुप्रतिमा अंगीकार की हो / अर्थात् सब सामान्य साधुओं के लिए यह विधान नहीं है / अपरिग्रहव्रत की पाँध भावनाएँ प्रथम भावना-धोत्रेन्द्रिय-संयम १६५-तस्स इमा पंच भावणाओ चरिमस्स वयस्स होंति परिग्गहवेरमण-परिरक्खणट्ठयाए / पढम--सोईदिएणं सोच्चा सद्दाई मणुण्णभद्दगाई / कि ते? वरमुरय-मुइंग-पणव-वन्दुर-कच्छभि-वीणा-विपंची-वल्लयि- बद्धीसग-सुघोस-णंदि-सूसरपरिवाइणी-वंस-तूणग-पव्वग-तंती-तल-ताल-तुडिय-णिग्घोसगीय-वाइयाई / गड-गट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिगवेलंबग-कहग-पवग-लासग-आइक्खग-लंख-मंख-तूणइल्ल-तुबबीणिय-तालायर-पकरणाणि य, बहूणि महुरसरगीय-सुस्सराइं कंची-मेहला-कलाव-पतरग-पहेरग-पायजालग-घंटिय-खिखिणि-रयणोरुजालियछुद्दिय-णेउर-चलण-मालिय-कणग-णियल-जालग-भूसण-सद्दाणि, लीलचंकम्ममाणाणुदीरियाई तरुणीजणहसिय-भणिय-कलरिभिय-मंजुलाई गुणवयणाणि व बहूणि महुरजण-भासियाई अण्णेसु य एवमाइएसु सद्देसु मणुण्णभद्दएसु ण तेसु समणेण सज्जियव्वं, ग रज्जियन्वं ण गिज्झियव्वं, ण मुज्झियव्वं, ण विणिग्यायं आवज्जियध्वं, ण लुभियन्वं, ण तुसियव्वं, ण हसियध्वं, ण सई च मई च तत्थ कुज्जा। पुणरवि सोइंदिएण सोच्चा सद्दाइं अमणुण्णपावगाई अबकोस-फरस-खिसण-अवमाणण-तज्जण-णिभंछण-दित्तवयण-तासण-उक्कजिय-रुण्ण-रडिय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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