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________________ सनिधि त्याग] [243 प्रकार का भोज्य पदार्थ, तर्पण-सत्त, मथु-बोर आदि का चूर्ण-आटा, भूजी हुई धानी-लाई, पललतिल के फूलों का पिष्ट, सूप-दाल, शष्कुली-तिलपपड़ी, वेष्टिम- जलेबी, इमरती आदि, वरसरक नामक भोज्य वस्तु, चूर्णकोश---खाद्य विशेष, गुड़ आदि का पिण्ड, शिखरिणी-दही में शक्कर आदि मिला कर बनाया गया भोज्य-श्रीखंड, वट्ट-बड़ा, मोदक लड्डू, दूध, दही, घी, मक्खन, तेल, खाजा, गुड़, खाँड, मिश्री, मधु, मद्य, मांस और अनेक प्रकार के व्यंजन-शाक, छाछ आदि वस्तुओं का उपाश्रय में, अन्य किसी के घर में अथवा अटवी में सुविहित परिग्रहत्यागी, शोभन आचार वाले साधुओं को संचय करना नहीं कल्पता है। विवेचन- उल्लिखित पाठ में खाद्य पदार्थों का नामोल्लेख किया गया है / तथापि सुविहित साधु को इनका संचय करके रखना नहीं कल्पता है / कहा है बिडमुब्भेइयं लोणं, तेल्लं सप्पि च फाणियं / ण ते सन्निहिमिच्छंति, नायपुत्तवए रया // अर्थात् सभी प्रकार के नमक, तेल, घृत, तिल-पपड़ी आदि किसी भी प्रकार के खाद्य पदार्थ का वे साधु संग्रह नहीं करते जो ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर के वचनों में रत हैं। संचय करने वाले साधु को शास्त्रकार गृहस्थ की कोटि में रखते हैं। संचय करना गृहस्थ का कार्य है, साधु का नहीं / साधु तो पक्षी के समान वृत्ति वाले होते हैं / उन्हें यह चिन्ता नहीं होती कि कल आहार प्राप्त होगा अथवा नहीं ! कौन जाने कल आहार मिलेगा अथवा नहीं, ऐसी चिन्ता से ही संग्रह किया जाता है, किन्तु साधु तो लाभ-अलाभ में समभाव वाला होता है / अलाभ की ति को वह तपश्चर्यारूप लाभ का कारण मानकर लेशमात्र भी खेद का अनुभव नहीं करता। संग्रहवत्ति से अन्य भी अनेक प्रकार के दोष उत्पन्न होने की संभावना रहती है। एक ही बार में पर्याप्त से अधिक आहार लाने से प्रमादवृत्ति पा सकती है। सरस आहार अधिक लाकर रख लेने से लोलुपता उत्पन्न हो सकती है, आदि / अतएव साधु को किसी भी भोज्य वस्तु का संग्रह न करने का प्रतिपादन यहाँ किया गया है / परिग्रह-त्यागी मुनि के लिए यह सर्वथा अनिवार्य है। १५८-जं पि य उद्दिट्ठ-ठविय-रइयग-पज्जवजायं पकिण्णं पाउयरण-पामिच्चं मीसगजायं कीयगडं पाहुडं च दाणपुण्णपगडं समणवणीमगट्ठयाए वा कयं पच्छाकम्म पुरेकम्मणिइकम्म मक्खियं अइरित्तं मोहरं चेव सयंगाहमाहडं मट्टिउवलित्तं, अच्छेज्जं चेव अणीसटें जं तं तिहिसु जण्णेसु उस्सवेसु य अंतो वा बहिं वा होज्ज समणट्टयाए ठवियं हिंसासावज्जसंपउत्तं ग कप्पइ तं पि य परिघेत्तु / 158- इसके अतिरिक्त जो आहार प्रौद्देशिक हो, स्थापित हो, रचित हो, पर्यवजात हो, प्रकीर्ण, प्रादुष्करण, प्रामित्य, मिश्रजात, क्रीतकृत, प्राभृत दोष वाला हो, जो दान के लिए या पुण्य के लिए बनाया गया हो, जो पाँच प्रकार के श्रमणों अथवा भिखारियों को देने के लिए तैयार किया गया हो, जो पश्चात्कर्म अथवा पुरःकर्म दोष से दूषित हो, जो नित्यकर्म-दूषित हो, जो प्रक्षित, अतिरिक्त मौखर, स्वयंग्राह अथवा पाहृत हो, मृत्तिकोपलिप्त, आच्छेद्य, अनिसृष्ट हो अथवा जो आहार मदनत्रयोदशी आदि विशिष्ट तिथियों में यज्ञ और महोत्सवों में, उपाश्रय के भीतर या बाहर साधुओं को देने के लिए रक्खा हो, जो हिंसा-सावद्य दोष से युक्त हो, ऐसा भी आहार साधु को लेना नहीं कल्पता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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