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________________ 242] [ प्रश्न व्याकरणसूत्र : श्रु. 2, प्र. 5 पवाक्त मणि और मोती का आधार सीपसम्पुट, शंख, उत्तम दांत, सींग, शैल-पाषाण (या पाठान्तर के अनुसार लेस अर्थात् श्लेष द्रव्य), उत्तम काच, वस्त्र और चर्मपात्र-इन सब को भी ग्रहण करना नहीं कल्पता। ये सब मूल्यवान् पदार्थ दूसरे के मन में ग्रहण करने की तीव्र आकांक्षा उत्पन्न करते हैं, प्रासक्तिजनक हैं, इन्हें संभालने और बढ़ाने की इच्छा उत्पन्न करते हैं, अर्थात किसी स्थान / पड़े पदार्थ देख कर दूसरे लोग इन्हें उठा लेने की अभिलाषा करते हैं, उनके चित्त में इनके प्रति मूर्छाभाव उत्पन्न होता है, वे इनकी रक्षा और वृद्धि करना चाहते हैं, किन्तु साधु को नहीं कल्पता कि वह इन्हें ग्रहण करे / इसी प्रकार पुष्प, फल, कन्द, मूल आदि तथा सन जिनमें सत्तरहवाँ है, ऐसे समस्त धान्यों को भी परिग्रहत्यागी साधु औषध, भैजष्य या भोजन के लिए त्रियोग-मन, वचन, काय से ग्रहण न करे। नहीं ग्रहण करने का क्या कारण है ? अपरिमित --अनन्त ज्ञान और दर्शन के धारक, शील-चित्त की शान्ति, गुण--अहिंसा आदि, विनय, तप और संयम के नायक, जगत् के समस्त प्राणियों पर वात्सल्य धारण करने वाले, त्रिलोकपूजनीय, तीर्थकर जिनेन्द्र देवों ने अपने केवलज्ञान से देखा है कि ये पुष्प, फल आदि त्रस जीवों की योनि---उत्पत्तिस्थान हैं / योनि का उच्छेद–विनाश करना योग्य नहीं है / इसी कारण श्रमणसिंह-.. उत्तम मुनि पुष्प, फल आदि का परिवर्जन करते हैं / विवेचन प्रस्तुत पाठ में स्पष्ट किया गया है कि ग्राम, आकर, नगर, निगम आदि किसी भी वस्ती में कोई भी वस्तु पड़ी हो तो अपरिग्रही साधु को उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए / इतना ही नहीं, साधु का मन इस प्रकार सधा हुआ होना चाहिए कि उसे ऐसे किसी पदार्थ को ग्रहण करने की इच्छा ही न हो ! ग्रहण न करना एक बात है, वह साधारण साधना का फल है, किन्तु ग्रहण करने की अभिलाषा ही उत्पन्न न होना उच्च साधना का फल है / मुनि का मन इतना समभावी, मूर्छाविहीन एवं नियंत्रित रहे कि वह किसी भी वस्तु को कहीं भी पड़ी देख कर न ललचाए / जो स्वर्ण, रजत, मणि, मोती आदि बहुमूल्य वस्तुएँ अथवा अल्प मूल्य होने पर भी सुखकर—आरामदेह वस्तुएँ दूसरे को मन में लालच उत्पन्न करती हैं, मुनि उन्हें उपेक्षा की दृष्टि से देखे / उसे ऐसी वस्तुओं को ग्रहण करने की अभिलाषा ही न हो। . फिर सचित्त पुष्प, फल, कन्द, मूल आदि पदार्थ तो त्रस जीवों की उत्पत्ति के स्थान हैं और योनि को विध्वस्त करना मुनि को कल्पता नहीं है। इस कारण ऐसे पदार्थों के ग्रहण से वह सदैव बचता है। सन्निधि-त्याग १५७-जंपि य ओयणकुम्मास-गंज-तप्पण-मथु-भुज्जिय-पलल-सूव-सक्कुलि-वेढिम-वरसरकचुण्ण-कोसग-पिंड- सिहरिणि-बट्ट-मोयग-खीर- दहि- सप्पि-णवणीय-तेल्ल-गुड-खंड-मच्छंडिय-महु-मज्जमंस-खज्जग-वंजण-विहिमाइयं पणीयं उबस्सए परघरे व रणे ण कप्पइ तं वि सणिहि काउं सुविहियाणं / १५७–और जो भी अोदन-क्रूर, कुल्माष--भड़द या थोड़े उबाले मूग आदि गंज-एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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