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________________ 238 / [प्रश्नव्याकरणसूत्र : शु. 2, अ. 5 31. सिद्धादिगुण-सिद्ध भगवान् में आदि से अर्थात् सिद्धावस्था के प्रथम समय से ही उत्पन्न होने वाले या विद्यमान रहने वाले गुण सिद्धादिगुण कहलाते हैं अथवा 'सिद्धाइगुण' पद का अर्थ 'सिद्धातिगुण' होता है, जिसका तात्पर्य है--सिद्धों के प्रात्यन्तिक गुण / ये इकतीस हैं—(१-५) तिज्ञानावरणीय प्रादि पाँच प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय (6-14) नौ प्रकार के दर्शनावरण का क्षय (15-16) सातावेदनीय-असातावेदनीय का क्षय (17) दर्शनमोहनीय का क्षय (18) चारित्रमोहनीय का क्षय (16-22) चार प्रकार के आयुष्यकर्म का क्षय (23-24) दो प्रकार के गोत्रकर्म का क्षय (25-26) शुभनामकर्म और अशुभनामकर्म का क्षय (27-31) पाँच प्रकार के अन्तराय कर्म का क्षय / प्रकारान्तर से इकतीस गुण इस प्रकार हैं--पाँच संस्थानों, पाँच वर्गों, पाँच रसों, दो गन्धों, आठ स्पों और तीन वेदों (स्त्रीवेद-पुरुषवेद-नपसकवेद) से रहित होने के कारण 28 गण तथा अकायता, असंगता और अरूपित्व, ये तीन गुण सम्मिलित कर देने पर सब 31 गुण होते हैं। 32. योगसंग्रह–मन, वचन और काय की प्रशस्त प्रवृत्तियों का संग्रह योगसंग्रह कहलाता है / यह बत्तीस प्रकार का है—(१) अालोचना--प्राचार्यादि के समक्ष शिष्य द्वारा अपने दोष को यथार्थ रूप से निष्कपट भाव से प्रकट करना / (2) निरपलाप-शिष्य द्वारा प्रकट किए हुए दोषों को प्राचार्यादि किसी अन्य के समक्ष प्रकट न करे। (3) आपत्ति प्रा पड़ने पर भी धर्म में दृढता रखना (4) विना किसी का सहारा लिये तपश्चर्या करना (5) प्राचार्यादि से सूत्र और उसके अर्थ आदि को ग्रहण करना (6) शरीर का शृगार न करना (7) अपनी तपश्चर्या या उग्र क्रिया को प्र करना (8) निर्लोभ होना (6) कष्ट-सहिष्णु होना–परीषहों को समभाव से सहन करना (10) प्रार्जव--सरलता-निष्कपटभाव होना (11) शुचिता-सत्य होना (12) दृष्टि सम्यक् रखना (13) समाधि-चित्त को समाहित रखना (14) पाँच प्रकार के प्राचार का पालन करना (15) विनोत होकर रहना (16) धैर्यवान् होना-धर्मपालन में दीनता का भाव न उत्पन्न होने देना (17) संवेगयुक्त रहना (18) प्रणिधि अर्थात् मायाचार न करना (19) समीचीन आचार-व्यवहार करना (20) संवर-ऐसा आचरण करना जिससे कर्मों का प्रास्रव रुक जाए (21) आत्मदोषोपसंहार---अपने में उत्पन्न होने वाले दोषों का निरोध करना (22) काम-भोगों से विरत रहना (23) मूल गुणों संबंधी प्रत्याख्यान करना (24) उत्तर गुणों से संबंधित प्रत्याख्यान करना-विविध प्रकार के नियमों को अंगीकार करना (25) व्युत्सर्ग-शरीर, उपधि तथा कषायादि का उत्सर्ग करनात्यागना (26) प्रमाद का परिहार करना (27) प्रतिक्षण समाचारों का पालन करना (28) रूप संवर की साधना करना (26) मारणान्तिक कष्ट के अवसर पर भी चित्त में क्षोभ न होना (30) विषयासक्ति से बचे रहना (31) अंगीकृत प्रायश्चित्त का निर्वाह करना या दोष होने पर प्रायश्चित्त लेना और (32) मृत्यु का अवसर सन्निकट आने पर संलेखना करके अन्तिम आराधना करना। 33. आशातनाएँ निम्नलिखित हैं (1) शैक्ष--नवदीक्षित या अल्प दीक्षापर्याय वाले साधु का रात्निक-अधिक दीक्षापर्याय वाले साधु के अति निकट होकर गमन करना। (2) शैक्ष का रात्निक साधु के आगे-आगे गमन करना / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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