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________________ तथा तज्जन्य दुःख हैं-- वध, बंधन, अनेक प्रकार की कुयोनियों, कुलों में जन्म-मरण करते हुए अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करना। द्वितीय श्रु तस्कन्ध है इन रोगों से निवृत्ति दिलाने वाले उपायों के वर्णन का / इसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के स्वरूप का और उनके सुखद प्रतिफलों का सविस्तार निरूपण किया है। प्रथम संबर अहिसा के प्रकरण में विविध व्यक्तियों द्वारा आराध्य विविध प्रकार की अहिंसा का विवेचन है। सर्वप्रथम अहिंसा के साठ सार्थक नामों का उल्लेख किया है। इन नामों में प्रकारान्तर से भगवती अहिंसा की महिमा, अतिशय और प्रभाव का निर्देश किया है। इन नामों से अहिंसा के व्यापक-सर्वांगीण-स्वरूप का चित्रण हो जाता है। अंत में अहिंसावृत्ति को संपन्न बनाने में कारणभूत पांच भावनाओं का वर्णन किया है। . सत्यरूप द्वितीय संवर के प्रकरण में विविध प्रकार के सत्यों का वर्णन किया है। इसमें व्याकरणसम्मत वचन को भी अमुक अपेक्षा से सत्य कहा है तथा बोलते समय व्याकरण के नियमों तथा उच्चारण की शुद्धता का ध्यान रखने का संकेत किया गया है। साथ ही दस प्रकार के सत्यों का निरूपण किया है-जनपदसत्य, संमतसत्य, स्थापनासत्य, नामसत्य, रूपसत्य, प्रतीतिसत्य, व्यवहारसत्य, भावसत्य, योगसत्य और उपमासत्य / के अतिरिक्त बोलने वालों को वाणीमर्यादा और शालीनता का ध्यान रखने के लिये कहा गया है कि ऐसा वचन नहीं बोलना चाहिये जो संयमघातक हो, पीड़ाजनक हो, भेद-विकथाकारक हो, कलहकारक हो, अपशब्द हो और अशिष्ट जनों द्वारा प्रयोग में लाया जाने वाला हो, अन्याय पोषक हो, अवर्णबाद से युक्त हो, लोकनिन्ध हो, स्वप्रशंसा और परनिन्दा करने वाला हो, इत्यादि / ऐसे वचन संयम का घात करने वाले हैं, अतः उनका प्रयोग नहीं करना चाहिये। प्रचौर्य संबन्धी प्रकरण में प्रचौर्य से सम्बन्धित अनुष्ठानों का वर्णन किया गया है। इसमें अस्तेय की स्थूल से लेकर सूक्ष्मतम व्याख्या की गई है। अचौर्य के लिये प्रयुक्त अदत्तादानविरमण और दत्तानुज्ञात इन दो पर्यायवाची नामों का अन्तर स्पष्ट करते हुए बताया है कि अदत्त के मुख्यतया पांच प्रकार हैं-देव-प्रदत्त, गुरु-प्रदत्त, राज-प्रदत्त, गृहपति-प्रदत्त और सहधर्मी-प्रदत्त / इन पांचों प्रकारों के अदत्तों का स्थल या सूक्ष्म किसी न किसी रूप में ग्रहण किया जाता है तो वह अदत्तादान है। ऐसे अदत्तादान का मन-वचन-काया से सर्वथा त्याग करना अदत्तादानविरमण कहलाता है। दत्तानुज्ञात में दत्त और अनुज्ञात यह दो शब्द हैं। इनका अर्थ सुगम है किन्तु ब्यजनिक अर्थ यह है कि दाता और प्राज्ञादायक के द्वारा भक्तिभावपूर्वक जो वस्तु दी जाए तथा लेने वाले की मानसिक स्वस्थता बनी रहे, ऐसी स्थिति का नियामक शब्द दत्तानुज्ञात है। दूसरा अर्थ यह है कि स्वामी के द्वारा दिये जाने पर भी जिसके उपयोग करने की अनुज्ञा-पाशा स्वीकृति गुरुजनों से प्राप्त हो, वही दत्तानुज्ञात है। अन्यथा उसे चोरी ही कहा जाएगा। ब्रह्मचर्यसंवर प्रकरण में ब्रह्मचर्य के गौरव का प्रभावशाली शब्दों में विस्तार से निरूपण किया गया है। इसकी साधना करने वालों के समानित एवं पूजित होने का प्ररूपण किया है। इन दोनों के माहात्म्यदर्शक कतिपय अंश इस प्रकार हैं--- सन्दपवित्तसूनिम्मियसारं, सिद्धिविमाणग्रवंगुयदारं / [24] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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