________________ 218] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : शु. 2, अ. 4 21. संघयणे चेव वज्जरिसहे / 22. संठाणे चेव समचउरंसे / 23. झाणेसु य परमसुक्कज्झाणं / 24. णाणेसु य परमकेवलं तु पसिद्ध / 25. लेसासु य परमसुक्कलेस्सा। 26. तित्थयरे चेव जहा मुणीणं / 27. वासेसु जहा महाविदेहे / 28. गिरिराया चेव मंदरवरे / 29. वणेसु जहा णंदणवणं पवरं। 30. दुमेसु जहा जंबू, सुदसणा विस्सुयजसा जीए णामेण य अयं दीवो। 31. तुरगवई गयवई रहवई परवई जह वीसुए चेव राया। 32. रहिए चेव जहा महारहगए। एवमणेगा गुणा अहीणा भवंति एग्गम्मि बंभचेरे / जम्मि य आराहियम्मि आराहियं वयमिणं सव्वं सोलं तवो य विणओ य संजमो य खंती गुत्ती मुत्ती तहेव इहलोइय-पारलोइयजसे य कित्ती य पच्चओ य, तम्हा णिहुएण बंभचेरं चरियध्वं सव्वओ विसुद्ध जावज्जीवाए जाव सेयट्ठिसंजओ ति एवं भणियं वयं भगवया / १४२--ब्रह्मचर्य की बत्तीस उपमाएँ इस प्रकार हैं 1. जैसे ग्रहगण, नक्षत्रों और तारागण में चन्द्रमा प्रधान होता है. उसी प्रकार समस्त व्रतों में ब्रह्मचर्य प्रधान है। 2. मणि, मुक्ता, शिला, प्रवाल और लाल (रत्न) की उत्पत्ति के स्थानों (खानों) में समुद्र प्रधान है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य सर्व ब्रतों का श्रेष्ठ उद्भवस्थान है। 3. इसी प्रकार ब्रह्मचर्य मणियों में वैज्र्यमणि के समान उत्तम है। 4. प्राभूषणों में मुकुट के समान है। 5. समस्त प्रकार के वस्त्रों में क्षौमयुगल-कपास के वस्त्रयुगल के सदृश है / 6. पुष्पों में श्रेष्ठ अरविन्द—कमलपुष्प के समान है / 7. चन्दनों में गोशीर्ष चन्दन के समान है। 8. जैसे ओषधियों-चामत्कारिक वनस्पतियों का उत्पत्तिस्थान हिमवान् पर्वत है, उसी प्रकार प्रामीषधि आदि (लब्धियों) की उत्पत्ति का स्थान ब्रह्मचर्य है। 6. जैसे नदियों में शीतोदा नदी प्रधान है, वैसे ही सब व्रतों में ब्रह्मचर्य प्रधान है। 10. समस्त समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र जैसे महान् है, उसी प्रकार व्रतों में ब्रह्मचर्य महत्त्वशाली है। 11. जैसे माण्डलिक अर्थात् गोलाकार पर्वतों में रुचकवर (तेरहवें द्वीप में स्थित) पर्वत प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य प्रधान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org