SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 206] [प्रश्नव्याकरणसून : श्र. 2, अ. 3 2. स्थापनासाधर्मिक-सार्मिक के चित्र आदि में उसकी स्थापना करना / 3. द्रव्यसार्मिक-जो भूतकाल में सार्मिक था या भविष्यत् में होगा, वर्तमान में नहीं है / 4. क्षेत्रसार्मिक-एक ही क्षेत्र-देश या नगर आदि के निवासी। 5. कालसार्मिक-जो समकालीन हों या एककालोत्पन्न हों। 6. प्रवचनसाधर्मिक-एक सिद्धान्त को मानने वाले, समान श्रद्धा वाले। 7. लिंगसार्मिक-एक ही प्रकार के वेष बाले / 8. दर्शनसार्मिक---जिनका सम्यग्दर्शन समान हो। 8. ज्ञानसामिक–मति आदि ज्ञानों की समानता वाले। 10. चारित्रसार्मिक-समान चारित्र-प्राचार वाले / 11. अभिग्रहसाधर्मिक----एक-से अभिग्रह वाले, पाहारादि के विषय में जिन्होंने एक-सी प्रतिज्ञा अंगीकार की हो। 12. भावनासार्धामक–समान भावना वाले–अनित्यादि भावनाओं में समान रूप से विचरने वाले। प्रस्तुत में प्रवचन, लिंग और चारित्र को अपेक्षा सामिक समझना चाहिए, अन्य अपेक्षाओं से नहीं। एक प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता है कि परनिन्दा और पर को दोष देना दोष तो है किन्तु अदत्तादान के साथ उनका सबन्ध जोड़ना कैसे उपयुक्त हो सकता है ? अर्थात् जो परनिन्दा करता है और पर के साथ द्वेष करता है, वह अदत्तादानविरमण व्रत का पालन नहीं कर सकता और जो यह नहीं करता वही पालन कर सकता है, ऐसा क्यों कहा गया है ? इस प्रश्न का समाधान आचार्य अभयदेव ने इस प्रकार किया है-- सामीजीवादत्तं तित्थयरेणं तहेव य गुरूहि / __ अर्थात् अदत्त चार प्रकार का है--स्वामि-अदत्त अर्थात् स्वामी के द्वारा विना दिया, जीवअदत्त, तीर्थकर-अदत्त और गुरु-प्रदत्त / निन्दा निन्दनीय व्यक्ति द्वारा तथा तीर्थकर और गुरु द्वारा अननुज्ञात (अदत्त) है, इसी प्रकार दोष देना भी दूषणीय जीव एवं तीर्थकर-गुरु द्वारा अननुजात है, अतएव इनका सेवन अननुज्ञातअदत्त का सेवन करना है / इस प्रकार अदत्तादान-त्यागी को परनिन्दा और दूसरे को दोष लगाना या किसी पर द्वेष करना भी त्याज्य है / शेष सुगम है। आराधना का फल १३३-इमं च परदव्वहरणवेरमणपरिरक्खणट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं पेच्चाभावियं आगमेसिभ सुद्धणेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाणं विउवसमणं / १३३---परकीय द्रव्य के हरण से विरमण (निवृत्ति) रूप इस अस्तेयव्रत को परिरक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy