________________ आहार को निर्दोष विधि] [171 एकासनिक-एकाशन करने वाले / * निविकृतिक–घी, दूध, दही आदि रसों से रहित भिक्षा लेने वाले / भिन्नपिण्डपातिक-फूटे-बिखरे पिण्ड--आहार को लेने वाले। परिमितपिण्डपातिक घरों एवं आहार के परिमाण का निश्चय करके आहार ग्रहण करने वाले। अरसाहारी–रसहीन-हींग आदि वघार से रहित आहार लेने वाले / विरसाहारी--पुराना होने से नीरस हुए धान्य का आहार लेने वाले / उपशान्तजीवी-भिक्षा के लाभ और अलाभ की स्थिति में उद्विग्न न होकर शान्तभाव में रहने वाले। प्रतिमास्थायिक-एकमासिकी आदि भिक्षुप्रतिमाओं को स्वीकार करने वाले / स्थानोत्कुटुक-उकड़ अासन से एक जगह बैठने वाले / वीरासनिक-वीरासन से बैठने वाले / (पैर धरती पर टेक कर कुर्सी पर बैठे हुए मनुष्य के नीचे से कुर्सी हटा लेने पर उसका जो आसन रहता है, वह वीरासन है।) नषधिक-दढ ग्रासन से बैठने वाले। दण्डायतिक-डंडे के समान लम्बे लेट कर रहने वाले। लगण्डशायिक-सिर और पांवों की एड़ियों को धरती पर टिका कर और शेष शरीर को अधर रख कर शयन करने वाले। एकपाश्विक-एक ही पसवाड़े से सोने वाले / आतापक-सर्दी-गर्मी में आतापना लेने वाले / अप्रावृत्तिक-प्रावरण-वस्त्ररहित होकर शीत, उष्ण, दंश-मशक आदि परीषह सहन करने वाले / अनिष्ठीवक-नहीं थूकने वाले / अकण्डूयक-शरीर को खुजली पाने पर भी नहीं खुजलाने वाले / शेष पद सुगम---सुबोध हैं और उनका प्राशय अर्थ में ही आ चुका है। इस प्रकार के महनीय पुरुषों द्वारा प्राचरित अहिंसा प्रत्येक कल्याणकामी के लिए आचरणीय है। आहार की निर्दोष विधि ११०–इमं च पुढवि-दग-अगणि-मारुय-तरुगण-तस-थावर-सव्वभूयसंजमदयट्ठयाए सुद्धउञ्छं गवेसियव्वं अकयमकारियमणाहूयमणुद्दिळं अकीयकडं णवहि य कोडिहिं सुपरिसुद्ध, दसहि य दोसेहि विप्पमुक्कं, उग्गम-उप्पायणेसणासुद्धं ववगयचुयचाधियचत्तदेहं च फासुयं च ण णिसज्जकहापओयगक्खासुओवणीयं ति ण तिगिच्छा-मंत-मूल-भेसज्जकज्जलं, ण लक्खणुप्पाय-सुमिण-जोइस-णिमित्तकहकप्पउत्तं, ण वि डंभणाए, ण वि रक्खणाए, ण वि सासणाए, वि डंभण-रक्खण-सासणाए भिक्खं गवेसियव्यं, ण वि बंदणाए, वि माणणाए, ण वि पूयणाए, ण वि वंदण-माणण-पूयणाए भिक्खं गवेसियव्वं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org