________________ 170] [प्रश्नव्याकरण सूत्र : श्र.२, अ. 1 दर्शनबली-सुदृढ तत्त्वार्थश्रद्धा के बल से सम्पन्न / चारित्रबली-विशुद्ध चारित्र की शक्ति से युक्त / क्षीरानबी-जिनके वचन दूध के समान मधुर प्रतीत हों। मधुरास्रवी-जिनकी वाणी मधु-सी मीठी हो / मपिरास्रवी-जिनके वचन घृत जैसे स्निग्ध-स्नेहभरे हों। अक्षीणमहानसिक-समाप्त नहीं होने वाले भोजन की लब्धि वाले / इस लब्धि के धारक मूनि अकेले अपने लिए लाये भोजन में से लाखों को तृप्तिजनक भोजन करा सकते हैं। वह भोजन तभी समाप्त होता है जब लाने वाला स्वयं भोजन कर ले / चारण-आकाश में विशिष्ट गमन करने वाले / विद्याधर--विद्या के बल से आकाश में चलने की शक्ति वाले / उत्क्षिप्तचरक—पकाने के पात्र में से बाहर निकाले हुए भोजन में से ही पाहार ग्रहण करने के अभिग्रह वाले। निक्षिप्तचरक-पकाने के पात्र में रक्खे हुए भोजन को ही लेने वाले / अन्तचरक-नीरस या चना आदि निम्न कोटि का ही आहार लेने बाले / प्रान्तचरक–बचा-खुचा ही आहार लेने की प्रतिज्ञा अभिग्रह वाले / रूक्षचरक-रूखा-सूखा ही आहार लेने वाले / समुदानचरक–सधन, निर्धन एवं मध्यम श्रेणी के घरों से समभावपूर्वक भिक्षा ग्रहण करने वाले। अन्नग्लायक-ठंडी-वासी भिक्षा स्वीकार करने वाले। मौनचरक-मौन धारण करके भिक्षा के लिए जाने वाले। संसृष्टकल्पिक-भरे (लिप्त) हाथ या पात्र से आहार लेने की मर्यादा वाले / तज्जातसंसष्टकल्पिक-जो पदार्थ ग्रहण करना है उसी से भरे हुए हाथ या पात्रादि से भिक्षा लेने के कल्प वाले। उपनिधिक--समीप में ही भिक्षार्थ जाने के अथवा समीप में रहे हुए पदार्थ को ही ग्रहण करने के अभिग्रह वाले। शुद्ध षणिक-निर्दोष आहार की गवेषणा करने वाले / संख्यादत्तिक-दत्तियों की संख्या निश्चित करके आहार लेने वाले / दष्टलाभिक–दृष्ट स्थान से दी जाने वाली या दष्ट पदार्थ की भिक्षा ही स्वीकार करने वाले। अदृष्टलाभिक–अदृष्टपूर्व--पहले नहीं देखे दाता से भिक्षा लेने वाले / पृष्टलाभिक--'महाराज ! यह वस्तु लेंगे ?' इस प्रकार प्रश्नपूर्वक प्राप्त भिक्षा लेने वाले / आचाम्लिक-प्रायंबिल तप करने वाले। परिमाधिक—दो पौरुषी दिन चढ़े बाद आहार लेने वाले / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org