________________ संवरद्वार] [159 प्रथम गाथा में प्रयुक्त 'आणुपुवीए' पद से यह प्रकट किया गया है कि संवरद्वारों की प्ररूपणा अनुक्रम से की जाएगी / अनुक्रम द्वितोय गाथा में स्पष्ट कर दिया गया है। प्रथम संवरद्वार अहिंसा है, दूसरा सत्य, तीसरा दत्त (अदत्तादानत्याग), चौथा ब्रह्मचर्य और पाँचवां अपरिग्रहत्व है। इनमें अहिंसा को प्रथम स्थान दिया गया है, क्योंकि अहिंसा प्रधान और मूल व्रत है / सत्यादि चारों व्रत अहिंसा की रक्षा के लिए हैं। नियुक्तिकार ने कहा है निवि एत्थ वयं इक्कं चिय जिणवरेहि सव्वेहिं / पाणाइवायवेरमणमवसेसा तस्स रक्खा // अर्थात् समस्त तीर्थकर भगवन्तों ने एक प्राणातिपातविरमणव्रत का ही कथन किया है / शेष (चार) व्रत उसी की रक्षा के लिए हैं। असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य और परिग्रह स्वहिंसा और पर-हिंसा के भी कारण होते हैं, अतएव सभी हिंसास्वरूप हैं। अहिंसा को 'तस-थावर-सव्वभूयखेमकरी' कह कर उसकी असाधारण महिमा प्रकाशित की है। अहिंसा प्राणीमात्र के लिए मंगलमयी है, सब का क्षेम करने वाली है। अहिंसा पर ही जगत् टिका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org