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________________ 158] [प्रश्नध्याकरणसूत्र : श्रु. 2, अ. 1 संवरः', अर्थात् जिसके द्वारा आने वाले कर्म संवृत कर दिए जाते-रोक दिए जाते हैं, वह संवर है। सरलतापूर्वक संवर का अर्थ समझाने के लिए एक प्रसिद्ध उदाहरण की योजना की गई है। वह इस प्रकार है--एक नौका अथाह समुद्र में स्थित है / नौका में गड़बड़ होने से कुछ छिद्र हो गए और समुद्र का जल नौका में प्रवेश करने लगा। उस जल के आगमन को रोका न जाए तो जल के भार के कारण वह डूब जाएगी। मगर चतुर नाविक ने उन छिद्रों को देख कर उन्हें बंद कर दिया / नौका के डूबने की आशंका समाप्त हो गई। अब वह सकुशल किनारे लग जाएगी। इसी प्रकार इस संसार-सागर में कर्म-वर्गणा रूपी अथाह जल भरा है, अर्थात् सम्पूर्ण लोक में अनन्त-अनन्त कार्मणवर्गणाओं के सक्ष्म-दश्य पुदगल ठसाठस भरे हैं। उसमें प्रात्मारूपी नौका स्थित है। हिंसा आदि आस्रवरूपी छिद्रों के द्वारा उसमें कर्मरूपी जल भर रहा है / यदि उस जल को रोका न जाए तो कर्मों के भार से वह डूब जाएगी-संसार में परिभ्रमण करेगी और नरकादि अधोगति में जाएगी। मगर विवेकरूपी नाविक कर्मागमन के कारणों को देखता है और उन्हें बंद कर देता है, अर्थात् अहिंसा आदि के आचरण से हिंसादि आस्रवों को रोक देता है / जब आस्रव रुक जाते हैं, कर्मबन्ध के कारण समाप्त हो जाते हैं तो कर्मों का नवीन बन्ध रुक जाता है. और आत्मारूपी नौका सही-सलामत संसार से पार पहुंच जाती है। ___यहाँ इतना और समझ लेना चाहिए कि नवीन पानी के आगमन को रोकने के साथ नौका में जो जल पहले भर चुका है, उसे उलीच कर हटा देना पड़ता है। इसी प्रकार जो कर्म पहले बँध चुके हैं, उन्हें निर्जरा द्वारा नष्ट करना आवश्यक है। किन्तु यह क्रिया संवर का नहीं, निर्जरा का विषय है / यहाँ केवल संवर का ही प्रतिपादन है, जिसका विषय नये सिरे से कर्मों के आगमन को रोक देना है। संवर की प्ररूपणा करने की प्रतिज्ञा के साथ सूत्रकार ने प्रथम गाथा में दो महत्त्वपूर्ण बातों का भी उल्लेख किया है / 'जह भणियाणि भगवया' अर्थात् भगवान् ने संवर का स्वरूप जैसा कहा है, वैसा ही मैं कहूँगा। इस कथन से पूत्रकार ने दो तथ्य प्रकट कर दिए हैं। प्रथम यह कि जो कथन किया जाने वाला है वह स्वमनीषिकाकल्पित नहीं है / सर्वज्ञ वीतराग देव द्वारा कथित है / इससे प्रस्तुत कथन की प्रामाणिकता घोतित की है। साथ ही अपनी लघुता-नम्रता भी व्यक्त कर दी है। 'सव्वदुक्खविमोक्खणढाए' इस पद के द्वारा अपने कथन का उद्देश्य प्रकट किया है / संसार के समस्त प्राणी दुःख से बचना चाहते हैं। जो भी कार्य किया जाता है, उसका लक्ष्य दुःख से मुक्ति पाना ही होता है / यह अलग बात है कि अधिकांश प्राणी अपने अविवेक के अतिरेक के कारण दुःख से बचने के लिए ऐसे उपाय करते हैं, जिनके कारण दुःख की अधिकाधिक वृद्धि होती है। फिर भी लक्ष्य तो दुःख से बचाव करना ही होता है। समस्त दुःखों से छुटकारा पाने का अमोघ उपाय समस्त कर्मों से रहित शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त करना है और प्राप्त करने के लिए संवर की आराधना करना अनिवार्य है। जब तक नवीन कर्मों के आगमन को रोका न जाए तब तक कर्म-प्रवाह आत्मा में आता ही रहता है। इस तथ्य को सूचित करने के लिए शास्त्रकार ने कहा है कि संवरद्वारों का प्ररूपण करने का प्रयोजन सर्व दुःखों से विमोक्षण है, क्योंकि उन्हें यथार्थ रूप से जाने विना उनकी साधना नहीं की जा सकती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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