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________________ विविध कलाएँ भी परिग्रह के लिए) [ 149 सपरदारअभिगमणासेवणाए आयासविसूरणं कलहभंडणवेराणि य अवमाणणविमाणणाओ इच्छामहिच्छप्पिवाससययतिसिया तण्हगेहिलोहघत्था अत्ताणा अणिग्गहिया करेंति कोहमाणमायालोहे / ___अकित्तणिज्जे परिग्गहे चेव होंति णियमा सल्ला दंडा य गारवा य कसाया सण्णा य कामगुणअण्हगा य इंदियलेस्साओ सयणसंपओगा सचित्ताचित्तमीसगाई दवाइं अणंतगाइं इच्छंति परिघेत्तु / सदेवमणुयासुरम्मि लोए लोहपरिग्गहो जिणवरेहि भणिो णस्थि एरिसो पासो पडिबंधो अस्थि सव्वजीवाणं सवलोए / 66- परिग्रह के लिए बहुत लोग सैकड़ों शिल्प या हुन्नर तथा उच्च श्रेणी की--निपुणता उत्पन्न करने वाले लेखन से लेकर शकुनिरुत--पक्षियों की बोली तक की, गणित की प्रधानता वाली बहत्तर कलाएँ सीखते हैं। नारियाँ रति उत्पन्न करने वाले चौसठ महिलागुणों को सीखती हैं। शिल्पपूर्वक सेवा करते हैं। कोई असि-तलवार आदि शस्त्रों को चलाने का अभ्यास करते हैं, कोई मसिकर्म-लिपि आदि लिखने की शिक्षा लेते हैं, कोई कृषि-खेती करते हैं, कोई वाणिज्य-व्यापार सीखते हैं, कोई व्यवहार अर्थात् विवाद के निपटारे की शिक्षा लेते हैं। कोई अर्थशास्त्र---राजनीति आदि की, कोई धनुर्वेद आदि शास्त्र एवं छुरी आदि शस्त्रों को पकड़ने के उपायों की, कोई अनेक प्रकार के वशीकरण आदि योगों की शिक्षा ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार के परिग्रह के सैकड़ों कारणोंउपायों ष्य जीवनपर्यन्त नाचते रहते हैं। और जिनकी बुद्धि मन्द है-जो पारमार्थिक हिताहित का विवेक करने वाली बुद्धि की मन्दता वाले हैं, वे परिग्रह का संचय करते हैं। परिग्रह के लिए लोग प्राणियों की हिंसा के कृत्य में प्रवृत्त होते हैं / झूठ बोलते हैं, दूसरों को ठगते हैं, निकृष्ट वस्तु को मिलावट करके उत्कृष्ट दिखलाते हैं और परकीय द्रव्य में लालच करते हैं। स्वदार-गमन में शारीरिक एवं मानसिक खेद को तथा परस्त्री की प्राप्ति न होने पर मानसिक पीड़ा को अनुभव करते हैं। कलह-वाचनिक विवाद-झगड़ा, लड़ाई तथा वैर-विरोध करते हैं, अपमान तथा यातनाएँ सहन करते हैं / इच्छाओं और चक्रवर्ती आदि के समान महेच्छाओं रूपी पिपासा से निरन्तर प्यासे बने रहते हैं। तृष्णा-अप्राप्त द्रव्य की प्राप्ति की लालसा तथा प्राप्त पदार्थों संबंधी गृद्धि-आसक्ति तथा लोभ में ग्रस्त—आसक्त रहते हैं। वे त्राणहीन एवं इन्द्रियों तथा मन के निग्रह से रहित होकर क्रोध, मान, माया और लोभ का सेवन करते हैं / __इस निन्दनीय परिग्रह में ही नियम से शल्य-मायाशल्य, मिथ्यात्वशल्य और निदानशल्य होते हैं, इसी में दण्ड-मनोदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड-अपराध होते हैं, ऋद्धि, रस तथा साता रूप तीन गौरव होते हैं, क्रोधादि कषाय होते हैं, आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रह नामक संज्ञाएँ होती हैं, कामगुण---शब्दादि इन्द्रियों के विषय तथा हिसादि पाँच आस्रवद्वार, इन्द्रियविकार तथा कृष्ण, नील एवं कापोत नामक तीन अशुभ लेश्याएँ होती हैं। स्वजनों के साथ संयोग होते हैं और परिग्रहवान् असीम-अनन्त सचित्त, अचित्त एवं मिश्र-द्रव्यों को ग्रहण करने की इच्छा करते हैं / _देवों, मनुष्यों और असुरों सहित इस स-स्थावररूप जगत् में जिनेन्द्र भगवन्तों-तीर्थंकरों ने (पूर्वोक्त स्वरूप वाले) परिग्रह का प्रतिपादन किया है। (वास्तव में) परिग्रह के समान अन्य कोई पाश-फंदा, बन्धन नहीं है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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