________________ 148) [प्रश्नव्याकरणसूत्र : शु. 1, अं. 5 द्वीप के कोण में स्थित झल्लरी के आकार के चार पर्वत), अंजनक पर्वत (नन्दीश्वर द्वीप के चक्रवाल में रहे हुए कृष्णवर्ण के पर्वत), दधिमुखपर्वत (अंजनक पर्वतों के पास की सोलह पुष्करणियों में स्थित 16 पर्वत), अवपात पर्वत (वैमानिक देव मनुष्यक्षेत्र में आने के लिए जिन पर उतरते हैं), उत्पात पर्वत (भवनपति देव जिनसे ऊपर उठकर मनुष्य क्षेत्र में आते हैं-वे तिगिछ कूट आदि), काञ्चनक (उत्तरकुरु और देवकुरु क्षेत्रों में स्थित स्वर्णमय पर्वत), चित्र-विचित्रपर्वत (निषध नामक वर्षधर पर्वत के निकट शीतोदा नदी के किनारे चित्रकूट और विचित्रकूट नामक पर्वत), यमकवर (नीलवन्त नामक वर्षधर पर्वत के समीप के शीता नदी के तट पर स्थित दो पर्वत), शिखरी (समुद्र में स्थित गोस्तूप आदि पर्वत), कूट (नन्दनवन के कूट) आदि में रहने वाले ये देव भी तृप्ति नहीं पाते। (फिर अन्य प्राणियों का तो कहना ही क्या ! वे परिग्रह से कैसे तृप्त हो सकते हैं ? ) वक्षारों (विजयों को विभक्त करने वाले चित्रकूट आदि) में तथा अकर्मभूमियों में (हैमवत प्रादि भोगमि के क्षेत्रों में) और सविभक्त--भलीभांति विभागवाली भरत. ऐरवत आदि पन्द्रह कर्मभूमियों में जो भी मनुष्य निवास करते हैं, जैसे--चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, माण्डलिक राजा (मण्डल के अधिपति महाराजा), ईश्वर---युवराज, बड़े-बड़े ऐश्वर्यशाली लोग, तलवर (मस्तक पर स्वर्णपट्ट बांधे हुए राजस्थानीय), सेनापति (सेना के नायक), इभ्य (इभ अर्थात् हाथी को ढंक देने योग्य विशाल सम्पत्ति के स्वामी), श्रेष्ठी (श्री देवता द्वारा अलंकृत चिह्न को मस्तक पर धारण करने वाले सेठ), राष्ट्रिक (राष्ट्र अर्थात् देश की उन्नति-अवनति के विचार के लिए नियुक्त अधिकारी), पुरोहित (शान्तिकर्म करने वाले), कुमार (राजपुत्र), दण्डनायक (कोतवाल स्थानीय राज्याधिकारी), माडम्बिक (मडम्ब के अधिपति-छोटे राजा), सार्थवाह (बहुतेरे छोटे व्यापारियों आदि को साथ लेकर चलने वाले बड़े व्यापारी), कौटुम्बिक (बड़े कुटुम्ब के प्रधान या गाँव के मुखिया) और अमात्य (मंत्री), ये सब और इनके अतिरिक्त अन्य मनुष्य परिग्रह का संचय करते हैं / वह परिग्रह अनन्त-अन्तहीन या परिणामशून्य है, अशरण अर्थात् दुःख से रक्षा करने में असमर्थ है, दुःखमय अन्त वाला है, अध्र व है अर्थात् टिकाऊ नहीं है, अनित्य है, अर्थात् अस्थिर एवं प्रतिक्षण विनाशशील होने से प्रशाश्वत है, पापकर्मों का मूल है, ज्ञानीजनों के लिए त्याज्य है, विनाश का मल कारण है, अन्य प्राणियों के वध और बन्धन का कारण है, अर्थात परिग्रह के कारण अन्य जीवों को वध-बन्धन-क्लेश-परिताप उत्पन्न होता है अथवा परिग्रह स्वयं परिग्रही के लिए वध-बन्धन आदि नाना प्रकार के घोर क्लेश का कारण बन जाता है, इस प्रकार वे पूर्वोक्त देव आदि धन, कनक, रत्नों आदि का संचय करते हुए लोभ से ग्रस्त होते हैं और समस्त प्रकार के दुःखों के स्थान इस संसार में परिभ्रमण करते हैं। विविध कलाएँ भी परिग्रह के लिये-- ९६--परिग्गहस्स य अट्ठाए सिप्पसयं सिक्खए बहुजणो कलाओ य बावरि सुणिउणाओ लेहाइयाओ सउणरुयावसाणाओ गणियप्पहाणाओ, चउद्धिं च महिलागुणे रइजणणे, सिप्पसेवं, असिमसि-किसि-वाणिज्जं, ववहारं अत्थसत्थईसत्थच्छरुप्पगयं, विविहाओ य जोगजुजणाओ, अण्णेसु एवमाइएसु बहुसु कारणसएसु जावज्जीवं णडिज्जए संचिणंति मंदबुद्धी। परिग्गहस्सेव य अट्ठाए करंति पाणाण-वहकरणं अलिय-णियडिसाइसंपओगे परदव्वाभिज्जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org