________________ 140] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : शु. 1, अ. 4 सूत्र में साधारण और प्रत्येकशरीरी जीवों का भी उल्लेख आया है। ये दोनों भेद वनस्पतिकायिक जीवों के हैं। जिस वनस्पति के एक शरीर के स्वामी अनन्त जीव हों, वे साधारण जीव कहलाते हैं और जिस बनस्पति के एक शरीर का स्वामी एक ही जीव हो, वह जीव प्रत्येकशरीर कहलाता है। प्राशय यह है कि जो प्राणी अब्रह्म के पाप से विरत नहीं होते, उन्हें दीर्घकाल पर्यन्त जन्मजरा-मरण की तथा अन्य अनेक प्रकार की भीषण एवं दुस्सह यातनाओं का भागी बनना पड़ता है / ९२–एसो सो अबंभस्स फलविधागो इहलोइओ परलोइओ य अप्पसुहो बहुदुक्खो महन्भओ बहुरयप्पगाढो दारुणो कवकसो असाओ वाससहस्सेहि मुच्चइ, ण य अवेयइत्ता अत्थि हु मोक्खोत्ति, एवमाहंसु णायकुलणंदणो महप्पा जिणो उ वीरवरणामधिज्जो कहेसी य अबंभस्स फलविवागं एयं / तं अबंभंवि चउत्थं सदेवमणुयासुरस्स लोयस्स पत्थणिज्जं एवं चिरपरिचियमणुगयं दुरंतं / तिबेमि / // उत्थं अहम्मदारं समत्तं / / ६२-अब्रह्म रूप अधर्म का यह इहलोकसम्बन्धी और परलोकसम्बन्धी फल-विपाक है। यह अल्पसुख–सुख से रहित अथवा लेशमात्र सुख वाला किन्तु बहुत दु:खों वाला है। यह फल-विपाक अत्यन्त भयंकर है और अत्यधिक पाप-रज से संयुक्त है। बड़ा ही दारुण और कठोर है। असाता का जनक है-असातामय है। हजारों वर्षों में अर्थात् बहुत दीर्घकाल के पश्चात् इससे छुटकारा मिलता है, किन्तु इसे भोगे विना छुटकारा नहीं मिलता--भोगना ही पड़ता है। ऐसा ज्ञातकुल के नन्दन वीरवर--महावीर नामक महात्मा, जिनेन्द्र-तीर्थंकर ने कहा है और अब्रह्म का फल-विपाक प्रतिपादित किया है। __यह चौथा आस्रव अब्रह्म भी देवता, मनुष्य और असुर सहित समस्त लोक के प्राणियों द्वारा प्रार्थनीय-अभीप्सित है। इसी प्रकार यह चिरकाल से परिचित-अभ्यस्त, अनुगत-पीछे लगा हुआ और दुरन्त है-दुःखप्रद है अथवा बड़ी कठिनाई से इसका अन्त आता है / / विवेचन--चतुर्थ प्रास्रवद्वार का उपसंहार करते हुए सूत्रकार ने अब्रह्म के फल को अतिशय दुःखजनक, नाममात्र का---कल्पनामात्र जनित सुख का कारण बतलाते हुए कहा है कि यह आस्रव सभी संसारी जीवों के पीछे लगा है, चिरकाल से जुड़ा है। इसका अन्त करना कठिन इसका अन्त तो अवश्य हो सकता है किन्तु उसके लिए उत्कट संयम-साधना अनिवार्य है। अब्रह्म के समग्र वर्णन एवं फलविपाक के कथन की प्रामाणिकता प्रदर्शित करने के लिए यह स्पष्ट कर दिया गया है कि अर्थ रूप में इसके मूल प्रवक्ता भगवान् महावीर जिनेन्द्र हैं / रत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org