________________ अब्रह्मचर्य का दुष्परिणाम ] [ 139 सूत्र में उल्लिखित संसारी जीवों के कतिपय भेद-प्रभेदों का अर्थ इस प्रकार है जन्म-मरण के चक्र में फंसे हुए जीव संसारी कहलाते हैं। जिन्हें मुक्ति प्राप्त नहीं हुई है वे जीव सदैव जन्म-मरण करते रहते हैं। ऐसे अनन्तानन्त जीव हैं / वे मुख्यतः दो भागों में विभक्त किये गये हैं-त्रस और स्थावर / केवल एक स्पर्शेन्द्रिय जिन्हें प्राप्त है ऐसे पृथ्वीकायिक, अप्कायिक आदि जीव स्थावर कहे जाते हैं और द्वीन्द्रियों से लेकर पंचेन्द्रियों तक के प्राणी त्रस हैं। इन संसारी जीवों का जन्म तीन प्रकार का है--गर्भ, उपपात और सम्मूर्छन / गर्भ से अर्थात् माता-पिता के रज और वीर्य के संयोग से जन्म लेने वाले प्राणी गर्भज कहलाते हैं। गर्भज जीवों के तीन प्रकार हैं-जरायुज, अण्डज और पोतज / गर्भ को लपेटने वाली थैलीपतली झिल्ली जरायु कहलाती है और जरायु से लिपटे हुए जो मनुष्य, पशु आदि जन्म लेते हैं, वे जरायुज कहे जाते हैं / पक्षी और सर्पादि जो प्राणी अंडे द्वारा जन्म लेते हैं, उन्हें अण्डज कहते हैं / जो जरायु आदि के आवरण से रहित है, वह पोत कहलाता है। उससे जन्म लेने वाले पोतज प्राणी कहलाते हैं / ये पोतज प्राणी गर्भ से बाहर आते ही चलने-फिरने लगते हैं। हाथी, हिरण आदि इस वर्ग के प्राणी हैं। देवों और नारक जीवों के जन्म के स्थान उपपात कहलाते हैं। उन स्थानों में उत्पन्न होने के कारण उन्हें औपपातिक कहते हैं। गर्भज और औषपातिक जीवों के अतिरिक्त शेष जीव सम्मूच्छिम कहलाते हैं। इधर-उधर के पुद्गलों के मिलने से गर्भ के विना ही उनका जन्म हो जाता है। विच्छू, मेंढक, कीड़े-मकोड़े आदि प्राणी इसी कोटि में परिगणित हैं। एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीव सम्मूच्छिम होते हैं / मनुष्यों के मल-मूत्र आदि में उत्पन्न होने वाले मानवरूप जीवाणु भी सम्मूच्छिम होते हैं। सम्मूच्छिम जन्म से उत्पन्न होने वाले जीव कोई स्वेदज, कोई रसज और कोई उद्भिज्ज होते हैं / स्वेद अर्थात् पसीने से उत्पन्न होने वाले जू आदि स्वेदज हैं। दूध, दही आदि रसों में उत्पन्न हो जाने वाले रसज और पृथ्वी को फोड़ कर उत्पन्न होने वाले उद्भिज्ज कहलाते हैं / पर्याप्ति का शब्दार्थ है पूर्णता / जीव जब नया जन्म धारण करता है तो उसे नये सिरे से शरीर, इन्द्रिय आदि के निर्माण की शक्ति- क्षमता प्राप्त करनी पड़ती है। इस शक्ति की पूर्णता को जैन परिभाषा के अनुसार पर्याप्ति कहते हैं। इसे प्राप्त करने में अन्तर्मुहर्त (48 मिनट के अन्दर मय लगता है। जिस जीव की यह शक्ति पूर्णता पर पहुँच गई हो, वह पर्याप्त और जिसकी पूर्णता पर न पहुँच पाई हो, वह अपर्याप्त कहलाता है। ये अपर्याप्त जीव भी दो प्रकार के होते हैं। एक वे जिनकी शक्ति पूर्णता पर नहीं पहुँची किन्तु पहुँचने वाली है वे करण---अपर्याप्त कहलाते हैं। कुछ ऐसे भी जीव होते हैं जिनकी शक्ति पूर्णता को प्राप्त नहीं हुई है और होने वाली भी नहीं है। वह लब्ध्यपर्याप्त कहलाते हैं। ऐसे जीव अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण किए बिना ही पुनः मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। कुल पर्याप्तियाँ छह हैं / उनमें से आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति और श्वासोच्छवासपर्याप्ति---ये चार एकेन्द्रिय जीवों में, भाषापर्याप्ति के साथ पाँच पर्याप्तियाँ द्वीन्द्रियों से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीवों में और मन सहित छहों पर्याप्तियाँ संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में होती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org