________________ परस्त्री में लुब्ध जीवों की दुर्दशा] [ 135 सदृशी मधुर वाणी का भी कथन किया गया है। यह भी प्रतिपादन किया गया है कि वे सदा रोग और शोक से मुक्त, सदा सुहाग से सम्पन्न और सुखमय जीवन यापन करती हैं / यह सब उनके बाह्य सौन्दर्य का प्रदर्शक है। उनकी आन्तरिक प्रकृति के विषय में यहाँ कोई उल्लेख नहीं है / इसका कारण यह है कि इससे पूर्व भोगभूमिज पुरुषों के वर्णन में जो प्रतिपादन किया जा चुका है, वह यहाँ भी समझ लेना है / तात्पर्य यह है कि वहाँ के मानव-पुरुष जैसे अल्पकषाय एवं सात्त्विक स्वभाव वाले होते हैं वैसे ही वहाँ की महिलाएँ भी होती हैं। जैसे पुरुष पूर्णतया निसर्गजीवी होते हैं वैसे ही नारियाँ भी सर्वथा निसर्ग-निर्भर होती हैं। प्रकृतिजीवी होने के कारण उनका समग्र शरीर सुन्दर होता है, नीरोग रहता है और अन्त तक उन्हें वार्धक्य की विडम्बना नहीं भुगतनी पड़ती। उन्हें सौन्दर्यवर्धन के लिए आधुनिक काल में प्रचलित अंजन, मंजन, पाउडर, नख-पालिस आदि वस्तुओं का उपयोग नहीं करना पड़ता और न ऐसी वस्तुओं का अस्तित्व वहाँ होता है / अभिप्राय यह है कि अकर्मभूमि की महिलाएँ तोन पल्योपम तक जीवित रहती हैं। यह जीवनमर्यादा / अधिकतम है। इससे अधिक काल का अायुष्य मनुष्य का असम्भव है। इतने लम्बे समय तक उनका यौवन अक्षुण्ण रहता है। उन्हें बुढापा आता नहीं। जीवन-पर्यन्त वे आनन्द, भोगविलास में मग्न रहती हैं। फिर भी अन्त में भोगों से अतृप्त रह कर ही मरण को प्राप्त होती हैं। इसका कारण पूर्व में ही लिखा जा चुका है कि जैसे ईधन से प्राग की भूख नहीं मिटती, उसी प्रकार भोगोपभोगों को भोगने से भोगतृष्णा शान्त नहीं होती-प्रत्युत अधिकाधिक वृद्धिंगत ही होती जाती है / अतएव भोगतृष्णा को शान्त करने के लिए भोर-विरति की शरण लेना ही एक मात्र सदुपाय है / परस्त्रो में लुब्ध जीवों की दुर्दशा ९०-मेहुणसण्णासंपगिद्धा य मोहभरिया सत्थेहि हणंति एक्कमेक्कं / विसयविसउदीरएसु अवरे परदारेहि हम्मति विसुणिया धणणासं सयणविप्पणासं य पाउणंति / परस्स दाराओ जे अविरया मेहुणसण्णासंपगिद्धा य मोहभरिया अस्सा हत्थी गवा य महिसा मिगा य मारेंति एक्कमेक्कं / मणुयगणा वाणरा य पक्खी य विरुज्झति, मित्ताणि खिप्पं हवंति सत्तू / समए धम्मे गणे य भिवंति पारवारी। धम्मगुणरया य बंभयारी खणेण उल्लोटुए चरित्ताओ। जसमंतो सुम्वया य पावेंति अयसकित्ति / रोगत्ता वाहिया पवड्ढेति रोगवाही। दुवे य लोया दुआराहगा हवंति-इहलोए चेव परलोए परस्स दाराओ जे अविरया / तहेव केइ परस्स दारं गवेसमाणा गहिया य हया य बद्धरुद्धा य एवं जाव गच्छंति विउलमोहाभिभूयसण्णा। ६०---जो मनुष्य मैथुनसंज्ञा में अर्थात् मैथुन सेवन की वासना में अत्यन्त आसक्त हैं और मोहभृत अर्थात् मूढता अथवा कामवासना से भरे हुए हैं, वे आपस में एक दूसरे का शस्त्रों से घात करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org