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________________ अब्रह्म के गुण-निष्पन्न नाम] [113 नहीं है / हरि, हर, ब्रह्मा आदि से लेकर कोई भी शूरवीर पुरुष ऐसा नहीं है जो कामवासनाअब्रह्मचर्य के अधीन न हो। यदि किसी पर इसका वश नहीं चल पाता तो वह केवल वीतरागजिन ही हैं, अर्थात् जिसने राग का समूल उन्मूलन कर दिया है, जो वासना से सर्वथा रहित हो गया है वही पुरुषपुगव अब्रह्मचर्य के फंदे से बच सका है।' इस कथन का आशय यह नहीं है कि अब्रह्मचर्य के पाश से बचना और ब्रह्मचर्य की प्राराधना करना असंभव है। जैसा कि ऊपर कहा गया है--जिन-वीतराग पुरुष इस दुर्जय विकार पर अवश्य विजय प्राप्त करते हैं। यदि अब्रह्मचर्य का त्याग असंभव होता तो सर्वज्ञ-वीतराग महापुरुष इसके त्याग का उपदेश ही क्यों देते ! जहाँ पुराणों आदि साहित्य में ब्रह्मचर्य का पालन करने को उद्यत हुए किन्तु निमित्त मिलने पर रागोद्रेक से प्रेरित होकर अनेक साधकों के उससे भ्रष्ट हो जाने के उदाहरण विद्यमान हैं, वहीं ऐसे-ऐसे जितेन्द्रिय, दृढमानस तपस्वियों के भी उदाहरण हैं, जिन्हें डिगाने के लिए देवांगनाओं ने कोई कसर नहीं रक्खी, अपनी मोहक हाव-भावविलासमय चेष्टाओं से सभी उपाय किये, किन्तु वे जितेन्द्रिय महामानव रंचमात्र भी नहीं डिगे / उन्होंने नारी को रक्त-मांस-अशुचि का ही पिण्ड समझा और अपने आत्मबल द्वारा ब्रह्मचर्य की पूर्ण रूप से रक्षा की। यही कारण है कि प्रस्तुत पाठ में उसे 'दुरंतं' तो कहा है किन्तु 'अनंत' नहीं कहा, अर्थात् यह नहीं कहा कि उसका अन्त नहीं हो सकता। हाँ, अब्रह्मचर्य पर पूर्ण विजय पाने के र तप और संयम में दृढता होना चाहिए, साधक को सतत निरन्तर सावधान रहना चाहिए। अब्रह्म के गुण-निष्पन्न नाम ८१–तस्स य णामाणि गोग्णाणि इमाणि होति तीसं, तं जहा-१ अबंभं 2 मेहुणं 3 चरंतं 4 संसग्गि 5 सेवणाहिगारो 6 संकप्पो 7 बाहणा पयाणं 8 दप्पो 9 मोहो 10 मणसंखोभो 11 अणिग्गहो 12 वुग्गहो 13 विधाओ 14 विभंगो 15 विभमो 16 अहम्मो 17 असोलया 18 गामधम्मतित्ती 19 रई 20 रागचिता 21 कामभोगमारो 22 वेरं 23 रहस्सं 24 गुज्झ 25 बहुमाणो 26 बंभचेर विग्यो 27 वावत्ती 28 विराहणा 29 पसंगो 30 कामगुणोत्ति वि य तस्स एयाणि एवमाईणि णामधेज्जाणि होति तीसं। ८१--उस पूर्व प्ररूपित अब्रह्मचर्य के गुणनिष्पन्न अर्थात् सार्थक तीस नाम हैं। वे इस प्रकार हैं 1. अब्रह्म-अकुशल अनुष्ठान, अशुभ आचरण / 2. मैथुन–मिथुन अर्थात् नर-नारी के संयोग से होने वाला कृत्य / 3. चरंत समग्र संसार में व्याप्त / / 4. संसर्गि-स्त्री और पुरुष (आदि) के संसर्ग से उत्पन्न होने वाला। 5. सेवनाधिकार-चोरी आदि अन्यान्य पापकर्मों का प्रेरक / 1. हरि-हर-हिरण्यगर्भप्रमुखे भुवने न कोऽप्यसौ शूरः / . कुसुमविशिखस्य विशिखान् अस्खलयद् यो जिनादन्यः / -प्र. व्या., मागरा-संस्करण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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