________________ चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्म श्रीसुधर्मा स्वामी अपने प्रधान अन्तेवासी जम्बू स्वामी के समक्ष चौथे प्रास्रव अब्रह्मचर्य की प्ररूपणा करते हुए उन्हें सम्बोधित करके कहते हैं ८०-जंबू ! अबभं च चउत्थं सदेवमणुयासुरस्स लोयस्स पत्थणिज्जं पंकपणयपासजालभूयं थी-पुरिस-ण सग-वेचिधं तव-संजम-बंभचेरविग्धं भेयाययण-बहुपमायमूलं कायर-कापुरिससेवियं सुयणजणवज्जणिज्ज उड्ड-णरय-तिरिय-तिल्लोकपइट्ठाणं जरा-मरण-रोग-सोगबहुलं वध-बंधविघायदुविधायं दंसणचरित्तमोहस्स हेउभूयं चिरपरिगय-मणुगयरं दुरंतं चउत्थं अहम्मदारं // 1 // ८०--हे जम्बू ! चौथा प्रास्रवद्वार अब्रह्मचर्य है। यह अब्रह्मचर्य देवों, मानवों और असुरों सहित समस्त लोक अर्थात् संसार के प्राणियों द्वारा प्रार्थनीय है संसार के समग्र प्राणी इसकी कामना या अभिलाषा करते हैं। यह प्राणियों को फंसाने वाले कीचड़ के समान है। इसके सम्पर्क से जीव उसी प्रकार फिसल जाते हैं जैसे काई के संसर्ग से / संसार के प्राणियों को बांधने के लिए पाश के समान है और फंसाने के लिए जाल के सदृश है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद इसका चिह्न है। यह अब्रह्मचर्य तपश्चर्या, संयम और ब्रह्मचर्य के लिए विघ्नस्वरूप-विघातक है। -सम्यकचारित्र के विनाशक प्रमाद का मल है। कायरों---सत्त्वहीन प्राणियों और कापुरुषों-निन्दित-निम्नवर्ग के पुरुषों (जीवों) द्वारा इसका सेवन किया जाता है। यह सुजनोंपाप से विरत साधक पुरुषों द्वारा वर्जनीय त्याज्य है / ऊर्ध्वलोक--देवलोक, नरकलोकअधोलोक एवं तिर्यकलोक-मध्यलोक में, इस प्रकार तीनों लोकों में इसकी अवस्थिति है-प्रसार है / जरा-बुढापा, मरण मृत्यु, रोग और शोक की बहुलता वाला है, अर्थात् इसके फलस्वरूप जीवों को जरा, मरण, रोग और शोक का पात्र बनना पड़ता है। वध मारने-पीटने, बन्धबन्धन में डालने और विघात-प्राणहीन कर देने पर भी इसका विघात–अन्त नहीं होता / यह दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का मूल कारण है। चिरकाल-अनादिकाल से परिचित है और सदा से अनुगत है-प्राणियों के पीछे पड़ा हुआ है / यह दुरन्त है, अर्थात् कठिनाई से-तीव्र मनोबल, दृढ संकल्प, उग्र तपस्या आदि साधना से ही इसका अन्त आता है अथवा इसका अन्त अर्थात् फल अत्यन्त दुःखप्रद होता है। ऐसा यह अधर्मद्वार है। विवेचन-अदत्तादान नामक तीसरे प्रास्रवद्वार का विस्तृत विवेचन करने के पश्चात् यहाँ क्रमप्राप्त अब्रह्मचर्य का निरूपण प्रारम्भ किया जा रहा है। यों तो सभी प्रास्रवद्वार आत्मा को पतित करने वाले और अनेकानेक अनर्थों के मूल कारण हैं, जैसा कि पूर्व में प्रतिपादित किया किया जा चुका है और आगे भी प्रतिपादन किया जाएगा। किन्तु अब्रह्मचर्य का इसमें अनेक दृष्टियों से विशिष्ट स्थान है। अब्रह्मचर्य इतना व्यापक है कि देवों, दानवों, मनुष्यों एवं तिर्यंचों में इसका एकच्छत्र साम्राज्य है। यहाँ तक कि जीवों में सब से हीन संज्ञा वाले एकेन्द्रिय जीव भी इसके धेरे से बाहर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org