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________________ 92] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : शु. 1, अ. 3 मगर-मच्छ-कच्छभोहार-गाह-तिमि-सुसुमार-सावय-समाहय-समुदायमाणक-पूरघोर-पउरं कायरजणहियय-कंपणं घोरमारसंतं महाभयं भयंकरं पदमयं उत्तामणगं प्रणोरपारं प्रागासं चेव गिरवलंबं / उपायणपवण-धणिय-णोल्लिय उवरुवरितरंगदरिय-प्राइवेग-वेग-चक्खुपहमच्छरंतं कत्थइ-गंभीर-विउलगज्जिय-गुजिय-णिग्घायगरुयणिवडिय-सुबोहणोहारि-दूरसुच्चंत-गंभीर-धुगुधुगंतसई पडिपहरुभंतजक्ख-रक्खस-कुहंड-पिसायरुसिय-तज्जाय-उवसाग-सहस्ससंकुलं बहुप्पाइयभूयं विरड्यबलिहोम-धूवउवयारदिण्ण-रुहिरच्चणाकरणपयत-जोगपययचरियं परियंत-जुगंत-कालकप्पोयम दुरतं महाणईगईवई-महाभीमदरिसणिज्जं दुरणुच्चरं विसमप्पवेसं दुक्खुत्तारं दुरासयं लवण-सलिलपुग्णं असिय सियसमूसियगेहि हत्थंतरकेहि वाहणेहि अइवइत्ता समुद्दमझे हणंति, गंतूण जणस्स पोए परदब्वहरा णरा। 67 --(इन चोरों के सिवाय कुछ अन्य प्रकार के लुटेरे भी होते हैं जो धन के लालच में फंस कर समुद्र में डाकेजनी या लूटमार करते हैं। उनका दिग्दर्शन यहाँ कराया जाता है।) वे लुटेरे रत्नों के आकर-खान समुद्र में चढ़ाई करते हैं / वह समुद्र कैसा होता है ? समुद्र सहस्रों तरंग-मालाओं से व्याप्त होता है / पेय जल के अभाव में जहाज के प्राकुल-व्याकुल मनुष्यों की कल-कल ध्वनि से युक्त होता है। सहस्रों पाताल-कलशों की वायु के क्षुब्ध धोने से तेजी से ऊपर उछलते हुए जलकणों की रज से अन्धकारमय बना होता है / निरन्तर प्रचुर मात्रा में उठने वाले श्वेतवर्ण के फेन ही मानों उस समुद्र का अट्टहास है / वहाँ पवन के प्रबल थपेड़ों से जल क्षुब्ध हो रहा होता है। जल की तरंगमालाएँ तीव्र वेग के साथ तरंगित होती हैं। चारों ओर तफानी हवाएँ उसे क्षोभित कर रही होती हैं / जो तट के साथ टकराते हुए जल-समूह से तथा मगर-मच्छ प्रादि जलीय जन्तुओं के कारण अत्यन्त चंचल हो रहा होता है / बीच-बीच में उभरे हुए-ऊपर उठे हुए पर्वतों के साथ टकराने वाले एवं बहते हुए अथाह जल-समूह से युक्त है, गंगा आदि महानदियों के वेग से जो शीघ्र ही लबालब भर जाने वाला है, जिसके गंभीर एवं अथाह भंवरों में जलजन्तु अथवा जलसमूह चपलतापूर्वक भ्रमण करते, व्याकुल होते, ऊपर-नीचे उछलते हैं, जो वेगवान् अत्यन्त प्रचण्ड, क्षुब्ध हुए जल में से उठने वाली लहरों से व्याप्त है, महाकाय मगर-मच्छों, कच्छपों, मोहम् नामक जल-जन्तुओं, घडियालों, बड़ी मछलियों, सुसुमारों एवं श्वापद नामक जलीय जीवों के परस्पर टकराने से तथा एक दूसरे को निगल जाने के लिए दौड़ने से वह समुद्र अत्यन्त धोर--भयावह होता है, जिसे देखते ही कायर जनों का हृदय काँप उठता है, जो अतीव भयानक और प्रतिक्षण भय उत्पन्न करने वाला है, अतिशय उद्वेग का जनक है, जिसका ओर-छोर--पार पार कहीं दिखाई नहीं देता, जो आकाश के सदृश निरालम्बन-बालंबनहीन है अर्थात् जिस समुद्र में कोई सहारा नहीं है, उत्पात से उत्पन्न होने वाले पवन से प्रेरित और ऊपराऊपरी-एक के बाद दूसरी गर्व से इठलाती हुई लहरों के वेग से जो नेत्रपथनजर को पाच्छादित कर देता है। उस समुद्र में कहीं-कहीं गंभीर मेघगर्जना के समान गूजती हुई, व्यन्तर देवकृत घोर ध्वनि के सदृश तथा उस ध्वनि से उत्पन्न होकर दूर-दूर तक सुनाई देने वाली प्रतिध्वनि के समान गंभीर और धुक-धुक करती ध्वनि सुनाई पड़ती है / जो प्रतिपथ-प्रत्येक राह में रुकावट डालने वाले यक्ष, राक्षस, कूष्माण्ड एवं पिशाच जाति के कुपित व्यन्तर देवों के द्वारा उत्पन्न किए जाने वाले हजारों उत्पातों-उपद्रवों से परिपूर्ण है / जो बलि, होम और धूप देकर को जाने वाली देवता की पूजा और रुधिर देकर की जाने वाली अर्चना में प्रयत्नशील एवं सामुद्रिक व्यापार में निरत नौका-वणिकों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003478
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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