________________ वनवासी चोर [ 91 इधर-उधर लुढकते हुए विह्वल मनुष्यों के विलाप के कारण वह युद्ध बड़ा ही करुणाजनक होता है। उस युद्ध में मारे गए योद्धाओं के इधर-उधर भटकते घोड़े, मदोन्मत्त हाथी और भयभीत मनुष्य, मूल से कटी हुई ध्वजाओं वाले टूटे-फूटे रथ, मस्तक कटे हुए हाथियों के धड़-कलेवर, विनष्ट हुए शस्त्रास्त्र और बिखरे हए आभषण-अलंकार इधर-उधर पडे होते हैं। नाचते हए बहर कलेवरों-धड़ों पर काक और गीध मँडराते रहते हैं। इन काकों और गिद्धों के झुड के झुंड घूमते हैं तब उनकी छाया के अन्धकार के कारण वह युद्ध गंभीर बन जाता है। ऐसे (भयावह-घोरातिघोर) संग्राम में (नपतिगण) स्वयं प्रवेश करते हैं केवल सेना को ही युद्ध में नहीं झोंकते। देव (देवलोक) और पृथ्वी को विकसित करते हुए, परकीय धन की कामना करने वाले वे राजा साक्षात् श्मशान समान, अतीव रौद्र होने के कारण भयानक और जिसमें प्रवेश करना अत्यन्त कठिन है, ऐसे संग्राम रूप संकट में चल कर अथवा आगे होकर प्रवेश करते हैं। विवेचन-प्रस्तुत पाठ में संग्राम की भयानकता का स्पष्ट चित्र उपस्थित किया गया है। पर-धन के इच्छुक राजा लोग किस प्रकार नर-संहार के लिए तत्पर हो जाते हैं ! यह वर्णन अत्यन्त सजीव है / इसके स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है। वनवासी चोर ६६-प्रवरे पाइक्कचोरसंघा सेणावइ-चोरवंद-पागडिका य अडवी-देसबुग्गवासी कालहरितरत्तपीतसुक्किल-प्रणेगसचिध-पट्टबद्धा परविसए अमिहणंति लुद्धा धणस्स कज्जे। ६६-इनके (पूर्वसूत्र में उल्लिखित राजामों के) अतिरिक्त पैदल चल कर चोरी करने वाले चोरों के समूह होते हैं / कई ऐसे (चोर) सेनापति भी होते हैं जो चोरों को प्रोत्साहित करते हैं। चोरों के यह समूह दुर्गम अटवी-प्रदेश में रहते हैं। उनके काले, हरे, लाल, पीले और श्वेत रंग के सैकड़ों चिह्न होते हैं, जिन्हें वे अपने मस्तक पर लगाते हैं। पराये धन के लोभी वे चोर-समुदाय दूसरे प्रदेश में जाकर धन का अपहरण करते हैं और मनुष्यों का घात करते हैं। विवेचन-ज्ञातासूत्र आदि कथात्मक प्रागमों में ऐसे अनेक चोरों और सेनापतियों का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है, जो विषम दुर्गम अटवी में निवास करते और लूटपाट करते थे। पांच-पांच सौ सशस्त्र चोर उनके दल में थे जो मरने-मारने को सदा उद्यत रहते थे। उनका सैन्यबल इतना सबल होता था कि राजकीय सेना को भी पछाड़ देता था / ऐसे ही चोरों एवं चोर-सेनापतियों का यहाँ उल्लेख किया गया है। समुद्री डाके 67- रयणागरसागरं उम्मीसहस्समाला-उलाउल-वितोयपोत-कलकलेत-कलियं पायालमहस्स-वायवसवेगसलिल-उद्धम्ममाणदगरयरयंधकारं वरफेणपउर-धवल-पुलपुल-समुट्ठियट्टहासं मारुयविच्छुभमाणपाणियं जल-मालुप्पोलहुलियं अवि य समंतम्रो खुभिय-लुलिय-खोखुम्भमाण-पक्खलियचलिय-विउलजलचक्कवाल-महाणईवेगतुरियापूरमाणगंभीर-विउल-प्रावत्त-चवल-भममाणगुप्पमाण - च्छलत पच्चोणियत्त-पाणिय-पधावियखर-फरस-पयंडवाउलियसलिल-फुटेंत वीइकल्लोलसंकुलं महा 1. "पायालकलससहस्स"-पाठ पूज्य श्री घासीलालजी म. वाली प्रति में है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org