________________ युद्धादि के उपदेश-आदेश ] [75 विवेचन-प्रस्तुत पाठ में अनेकानेक सावध कार्यों के आदेश और उपदेश का उल्लेख किया गया है और यह प्रतिपादन किया गया है कि विवेकविहीन जन किसी के पूछने पर अथवा न पूछने पर भी, अपने स्वार्थ के लिए अथवा विना स्वार्थ भी केवल अपनी चतुरता, व्यवहारकुशलता और प्रौढता प्रकट करने के लिए दूसरों को ऐसा आदेश-उपदेश दिया करते हैं, जिससे अनेक प्राणियों को पीडा उपजे, परिताप पहुँचे, उनकी हिंसा हो, विविध प्रकार का प्रारम्भ-समारम्भ हो। अनेक लोग इस प्रकार के वचन-प्रयोग में कोई दोष ही नहीं समझते। अतएव वे निश्शंक होकर ऐसी भाषा का प्रयोग करते हैं। ऐसे अज्ञ प्राणियों को वास्तविकता समझाने के लिए सूत्रकार ने इतने विस्तार से इन अलीक वचनों का उल्लेख किया और आगे भी करेंगे। यहाँ ध्यान में रखना चाहिए कि सूत्र में निर्दिष्ट वचनों के अतिरिक्त भी इसी प्रकार के अन्य वचन, जो पापकार्य के प्रादेश, उपदेश के रूप में हों अथवा परपीडाकारी हों, वे सभी मृषावाद में गभित हैं / ऐसे कार्य इतने अधिक और विविध हैं कि सभी का मूल पाठ में संग्रह नहीं किया जा सकता / इन निर्दिष्ट कार्यों को उपलक्षण-दिशादर्शकमात्र समझना चाहिए / इनको भलीभांति समझ कर अपने विवेक की कसौटी पर कसकर और सद्बुद्धि की तराजू पर तोल कर ऐसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए जो स्व-पर के लिए हितकारक हो, जिससे किसी को आघात-संताप उत्पन्न न हो और जो हिंसा-कार्य में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में सहायक न हो। . ___ सर्वविरति के आराधक साधु-साध्वी तो ऐसे वचनों से पूर्ण रूप से बचते ही हैं, किन्तु देशविरति के आराधक श्रावकों एवं श्राविकाओं को भी ऐसे निरर्थक वाद से सदैव बचने की सावधानी रखनी चाहिए। आगे भी ऐसे ही त्याज्य वचनों का उल्लेख किया जा रहा है। युद्धादि के उपदेश-प्रादेश ५७–अप्पमहउकोसगा य हम्मंतु पोयसत्था, सेण्णा णिज्जाउ, जाउ डमरं, घोरा बतु य संगामा पवहंतु य सगडवाहणाई, उवणयणं चोलगं विवाहो जण्णो अमुगम्मि य होउ दिवसेसु करणेसु महत्तेसु णक्वत्तेसु तिहिसु य, अज्ज होउ व्हवणं मुइयं बहुखज्जपिज्जकलियं कोउगं विण्हावणगं, संतिकम्माणि कुणह ससि-रवि-गहोवराग-विसमेसु सज्जणपरियणस्स य णियगस्स य जीवियस्स परिरक्खणट्टयाए पडिसीसगाई य बेह, वह य सीसोवहारे विविहोसहिमज्जमंस-भक्खण्ण-पाण-मल्लाणुलेवणपईवजलि-उज्जलसुगंधि-धूवावगार-पुष्फ-फल-समिद्ध पायच्छित्ते करेह, पाणाइवायकरणेणं बहुविहेणं विवरीउप्पायदुस्सुमिण-पावसउण-प्रसोमगहचरिय-प्रमंगल-णिमित्त-पडिघायहे, वित्तिच्छेयं करेह, मा देह किंचि दाणं, सुठ्ठ हो सुठ्ठ हो सु? छिण्णो भिण्णोत्ति उवदिसंता एवंविहं करेंति अलियं मणेण वायाए कम्मुणा य अकुसला अणज्जा अलियाणा अलियधम्म-णिरया प्रलियासु कहासु अभिरमंता तुट्ठा अलियं करेत्तु होइ य बहुप्पयारं / ५७-छोटे, मध्यम और बड़े नौकादल या नौकाव्यापारियों या नौकायात्रियों के समूह को नष्ट कर दो, सेना (युद्धादि के लिए) प्रयाण करे, संग्रामभूमि में जाए, घोर युद्ध प्रारंभ हो, गाड़ी और नौका आदि वाहन चलें, उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार, चोलक-शिशु का मुण्डनसंस्कार, विवाहसंस्कार, यज्ञ-ये सब कार्य अमुक दिनों में, वालव आदि करणों में, अमृतसिद्धि आदि मुहूत्र्तों में, अश्विनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org