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________________ 48 ] [ अन्तकृद्दशा घुघरूवाले उत्तम वस्त्रों को धारण किये हुए वह देव कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहने लगाहे देवानुप्रिय! मैं महान ऋद्धिधारक हरिणैगमेषी देव हूँ। क्योंकि तुम पौषधशाला में अष्टमभक्त तप ग्रहण करके मुझे मन में रखकर स्थित हो, इस कारण हे देवानुप्रिय ! मैं शीघ्र यहाँ आया हूँ। हे देवानुप्रिय ! बताओ तुम्हारा क्या इष्ट कार्य करूं ? तुम्हें क्या दूं? तुम्हारे किसी सम्बन्धी को क्या द? तम्हारा मनोवांछित क्या है ? तत्पश्चात कृष्ण वासदेव ने ग्राकाशस्थित उस हरिणैगमेषी देव को देखा, और देखकर वह हृष्ट तुष्ट हुआ। पौषध को पाला-पूर्ण किया, फिर दोनों हाथ मस्तक पर जोड़कर इस प्रकार कहा हे देवानुप्रिय ! मेरे एक सहोदर लघुभ्राता का जन्म हो, यह मेरी इच्छा है। देवकी देवी को आश्वासन १४–तए णं से हरिणेगमेसी कण्ह वासुदेवं एवं क्यासी-होहिइ णं देवाणुप्पिया ! तव देवलोयचुए सहोदरे कणोयसे भाउए / से णं उम्मुक्क जाव [बालभावे विण्णय-परिणयमेत्ते जोवणग] मणुपत्ते अरहओ अरिडणेमिस्स अंतियं मुडे जाव [भवित्ता प्रागारायो प्रणगारियं] पम्वइस्सइ / कण्हं वासुदेवं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वदइ, बदित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए। तए णं से कण्हे वासुदेवे पोसहसालानो पडिणिवत्तइ, पडिणिवत्तित्ता जेणेव देवई देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता देवईए देवीए पायग्गहणं करेइ, करेता एवं बयासी "होहिइ णं अम्मो! मम सहोदरे कणीयसे माउए त्ति कटु देवई देवि ताहि इट्टाहि जाव [कंताहि पियाहिं मण्णुणाहिं वग्गूहिं] पासासेई, प्रासासित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए। तब हरिणैगमेषी देव श्रीकृष्ण वासुदेव से इस प्रकार बोला-'हे देवानुप्रिय ! देवलोक का एक देव वहाँ का आयुष्य पूर्ण होने पर देवलोक से च्युत होकर आपके सहोदर छोटे भाई के रूप में जन्म लेगा और इस तरह आपका मनोरथ अवश्य पूर्ण होगा, पर वह बाल्यकाल बीतने पर, विज्ञ और परिणत होकर युवावस्था प्राप्त होने पर भगवान् श्रीअरिष्टनेमि के पास मुण्डित होकर श्रमणदीक्षा ग्रहण करेगा।" श्रीकृष्ण वासुदेव को उस देव ने दूसरी बार, तीसरी बार भी यही कहा और यह कहने के पश्चात् जिस दिशा से आया था उसी में लौट गया / इसके पश्चात् श्रीकृष्ण-वासुदेव पौषधशाला से निकले, निकलकर देवकी माता के पास आये, आकर देवकी देवी का चरण-वंदन किया, चरण-वंदन कर वे माता से इस प्रकार बोले "हे माता! मेरा एक सहोदर छोटा भाई होगा। अब आप चिंता न करें। आपकी इच्छा पूर्ण होगी।" ऐसा कह करके उन्होंने देवकी माता को मधुर एवं इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ वचनों द्वारा आश्वस्त किया। आश्वस्त करके जिस दिशा से प्रादुर्भूत-प्रकट हुए थे उसी दिशा में लौट गये। विवेचन-प्रसन्न हया हरिणैगमेषी देव श्रीकृष्ण को उनके सहोदर भाई होने का आश्वासन देता है परंतु साथ ही उसके दीक्षित हो जाने का सूचन भी करता है। श्रीकृष्ण माता देवकी के पास जाकर इस कार्य-सिद्धि की सूचना देते हैं। प्रस्तुत सूत्र में कृष्ण द्वारा देवकी देवी को आश्वासन देने का उल्लेख किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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