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________________ अष्टम अध्ययन ] [ 41 ११--एवं खलु देवाणुप्पिए ! तेणं कालेणं तेणं समएणं भहिलपुर नयर नागे नाम गाहावई परिवसइ अड्डे / तस्स णं नागस्स गाहावइस्स सुलसा नाम भारिया होत्था। तए णं सा सुलसा बालत्तणे चेव हरिणेगमेसीभत्तया यावि होत्था। नेमित्तिएण बागरिया-एस णं दारिया णिदू भविस्सइ / तए णं सा सुलसा बालप्पभिई चेव हरिणेगमेसिस्स पडिमं करेइ, करता कल्लालि हाया जाव' पायच्छित्ता उल्लपडसाडया महरिहं पुष्फच्चणं कर इ, करेत्ता जण्णुपायपडिया पणामं कर इ, करेत्ता तनो पच्छा आहारेइ वा नोहार इ वा वरइ वा। तए णं तीसे सुलसाए गाहावइणीए भत्तिबहुमाणसुस्सूसाए हरिणेगमेसी देवे प्राराहिए यावि होत्था / तए णं से हरि-णेगमेसी देवे सुलसाए गाहावइणीए अणुकंपणट्ठयाए सुलसं गाहावइणि तुमं च दो वि समउउयानो करेइ / तए णं तुम्भे दो वि सममेव गन्भे गिण्हह, सममेव गम्भे परिवहह, सममेव दारए पयायह / तए णं सा सुलसा गाहावइणी विणिहायमावण्णे दारए पयायइ / तए णं से हरि-णेगमेसी देवे सुलसाए अणकपणट्टयाए विणिहायमावण्णे दारए करयल-संपुडेणं गेण्हइ, गेण्हित्ता तव अंतियं साहरई। तं समयं च णं तुम पि नवण्हं मासाणं सुकुमालदारए पसबसि / जे वि य णं देवाणप्पिए ! तव पुत्ता ते वि य तव अंतिग्रामो करयल-संपुडेणं गेण्हइ, गेण्हित्ता सुलसाए गाहावइणीए अंतिए साहरइ / तं तव चेव णं देवई ! एए पुत्ता / णो सुलसाए गाहावइणोए।। अरिहंत अरिष्टनेमि ने कहा-'देवानुप्रिये ! उस काल उस समय में भद्दिलपुरनामक नगर में नाग नाम का गाथापति रहता था। वह पूर्णतया सम्पन्न था। नागरिकों में उसकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। उस नाग गाथापति की सुलसा नाम की भार्या थी। उस सुलसा गाथापत्नी को बाल्यावस्था में ही किसी निमित्तज्ञ ने कहा था- 'यह बालिका निंदु अर्थात् मृतवत्सा (मृत बालकों को जन्म देने वाली) होगी। तत्पश्चात् वह सुलसा बाल्यकाल से ही हरिणैगमेषी देव की भक्त बन गई। उसने हरिणगमेषी देव की प्रतिमा बनवाई। प्रतिमा बनवा कर प्रतिदिन प्रातःकाल स्नान करके यावत् दुःस्वप्न निवारणार्थ प्रायश्चित्त कर पार्द्र (गीली) साड़ी पहने हुए उसकी बहूमूल्य पुष्यों से अर्चना करती / पुष्पों द्वारा पूजा के पश्चात् घुटने टेककर पांचों अंग नमा कर प्रणाम करती, तदनन्तर पाहार करती, निहार करती एवं अपनी दैनन्दिनी के अन्य कार्य करती। तत्पश्चात् उस सुलसा गाथापत्नी की उस भक्ति-बहुमानपूर्वक की गई शुश्रषा से देव प्रसन्न हो गया / प्रसन्न होने के पश्चात् हरिणैगमेषी देव सुलसा गाथापत्नी को तथा तुम्हें-दोनों को समकाल में ही ऋतुमती (रजस्वला) करता और तब तुम दोनों समकाल में ही गर्भ धारण करती, समकाल में ही गर्भ का वहन करतीं और समकाल में ही बालक को जन्म देतीं। प्रसवकाल में वह सुलसा गाथापत्नी मरे हुए बालक को जन्म देती / तब वह हरिणैगमेषो देव सुलसा पर अनुकंपा करने के लिये उसके मृत बालक क को हाथों में लेता और लेकर तुम्हारे पास लाता। इधर उसी समय तुम भी नव मास का काल पूर्ण होने पर सुकुमार बालक को जन्म देतीं। हे देवानुप्रिये ! जो तुम्हारे पुत्र होते उनको हरिणैगमेषी देव तुम्हारे पास से अपने दोनों हाथों में ग्रहण करता और उन्हें ग्रहण कर सुलसा गाथापत्नी के पास लाकर रख देता (पहुँचा देता)। अत: वास्तव में हे देवकी ! ये तुम्हारे ही पुत्र हैं, सुलसा गाथापत्नी के पुत्र नहीं हैं।' विवेचन-भगवान् अरिष्टनेमि ने देवकी देवी के समाधान के लिये नाग की धर्मपत्नी सुलसा 1. देखिए पिछला सूत्र / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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