________________ 10] [अन्तकृद्दशा आराधना से प्रसन्न हुए वैश्रमण देव प्रकट हो गए। तब कृष्ण महाराज ने उनको नगरी बसाने के लिये निवेदन किया। तदनन्तर धनपति देव ने अाभियोगिक देवों द्वारा दिव्य योजनानुसार शीघ्र ही वहाँ नगरी बसा दी। नगरी के द्वार बहुत बड़े-बड़े थे, इस कारण इसका नाम द्वारवती रखा गया। आगे चलकर यही द्वारवती द्वारका कहलाने लगी। इस द्वारका नगरी को सूत्रकार ने 'अलकापुरीसंकासा" अर्थात् अलकापुरी सदृश कहा है / वैश्रमण देव की नगरी का नाम अलकापुरी है। यह अलकापुरी अद्वितीय सौन्दर्य वाली है। द्वारका नगरी का निर्माण स्वयं कुबेर ने किया है। वे अपनी नगरी की सभी विशेषताओं को द्वारका में ले आए थे, उसमें उन्होंने कोई न्यूनता नहीं रहने दी थी। अतः द्वारका को कुबेरनगरी से उपमित करना या उसे कुबेर नगरी के तुल्य बताना उचित ही है / पासादीया आदि 4 शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं हृदय में प्रमोद-प्रसन्नता पैदा करनेवाली नगरी 'पासादीया' है। जिस नगरी को देखदेखकर आंखें श्रान्ति-थकावट अनुभव न करें, निरन्तर देखने की ही उनमें लालसा बनी रहे, उसे 'दर्शनीया' कहते हैं। जिस नगरी की दीवारों पर राजहंस, चक्रवाक् सारस, हाथी, महिष, मृग आदि के तथा जल में स्थित (विहार करते हुए) मगरमच्छ आदि जलीय प्राणियों के सुन्दर चित्र बने हुए हों अथवा जिस नगरी को एक बार देख लेने पर भी, उसे पुनः देखने के लिये दर्शक की इच्छा बनी रहती हो, उस नगरी को 'अभिरूपा' कहते हैं। जिस नगरी को जब भी देखो तब ही उस में देखने वाले को कुछ नवीनता प्रतिभासित हो, उस नगरी को 'प्रतिरूपा' कहते हैं। ६-तत्थ णं बारवईए नयरीए कण्हे नामं वासुदेवे राया परिवसइ / महया० रायवष्णो / से णं तत्थ समद्दविजयपामोक्खाणं दसण्हं दसाराणं बलदेवपामोक्खाणं पंचण्ह महावीराणं, पज्जुण्णपामोक्खाणं अधुट्ठाणं कुमारकोडीणं, संबपामोक्खाणं सट्ठीए दुइंतसाहस्सोणं, महासेणपामोक्खाणं छप्पण्णाए बलवग्गसाहस्सोणं, वीरसेणपामोक्खाणं एगवीसाए वीरसाहस्सोणं, उग्गसेणपामोक्खाणं सोलसण्हं रायसाहस्सीणं, रुप्पिणीपामोक्खाणं सोलसण्हं देविसाहस्सीणं अणंगसेणापामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणं, असि च बहूणं, ईसर जाव [तलवर-माडंबिय-कोडुबिय-इभ--सेटिसेणावई सत्थवाहाणं बारबईए नयरीए अद्धभरहस्स य समत्थस्स' पाहेवच्चं जाव [पोरेवच्चं भट्टित्त सामित्त महयरनं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे, महयाऽऽहय-पट्ट-गीय-वाइयतंती-तल-तालतुडिय-घण-मयंग-पडुप्पवाइयरवेणं विउलाई भोग भोगाई भुजमाणे] विहरइ / उस द्वारका नगरी में कृष्ण नाम के वासुदेव राजा राज्य करते थे, वे महान् थे। (इनका विशेष वर्णन उववाई सूत्र से जान लेना चाहिए।) वे (वासुदेव श्रीकृष्ण) समुद्रविजय की प्रधानतावाले दश दशाह, दश पूज्यजन, बलदेव की प्रधानतावाले पाँच महावीर, प्रद्युम्न की प्रधानतावाले साढ़े तीन करोड़ राजकुमार, शांब की प्रधानतावाले 60 हजार दुर्दान्त कुमार, महासेन की प्रधानता वाले 16 हजार राजा, रुक्मिणी की प्रधानतावाली 16 हजार देवियां-रानियां, अनंगसेना की प्रधानतावाली हजारों गणिकाएं, तथा और भी अनेकों ऐश्वर्यशाली, यावत् [तलवर, माडम्बिक, पाठान्तर-'समंतस्स'-अंगसुत्ताणि-भाग 3, पृ. 543. 'सम्मत्तस्स'-सम्यग्ज्ञान प्रचारक मंडल-जयपुर संस्करण पृ. 12. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org