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________________ प्रथम वर्ग] गौतम ५---"एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवई नाम नयरी होत्था / दुवालसजोयणायामा, नव-जोयण-विस्थिण्णा, धणवइ-मइ-निम्माया, चामीकर-पागारा, नानामणि-पंचवण्ण-कविसीसगमंडिया, सुरम्मा, अलकापुरी-संकासा, पमुदिय-पक्कोलिया पच्चक्खं देवलोगभूया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। तीसे गं बारवईए णयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए एत्थ णं रेवयए नाम पन्वए होत्था / तत्थ णं रेवयए पव्वए नंदणवणे नामं उज्जाणे होत्था / वण्णप्रो / सुरप्पिए नामं जक्खायतणे होत्था, पोराणे, से णं एगेणं वणसंडेणं सव्वो समंता संपरिक्खित्त, प्रसोगवरपायवे / " (आर्य सुधर्मा स्वामी जंबू अनगार के प्रश्न का उत्तर देते हुए बोले-) "जंबू ! उस काल और उस समय में द्वारका नाम की एक नगरी थी। वह बारह योजन लम्बी, नौ योजन चौडी, वैश्रमण देव कुबेर के कौशल से निर्मित, स्वर्ण-प्राकारों (कोटों) से युक्त, पंचवर्ण के मरिणयों से जटित कंगूरों से सुशोभित थी और कुबेर की नगरी अलकापुरी सदृश प्रतीत होती थी। प्रमोद और क्रीडा का स्थान थी. साक्षात् देवलोक के समान देखने योग्य, चित्त को प्रसन्न करने वाली, दर्शनीय थी, अभिरूप थी, प्रतिरूप थी। उस द्वारका नगरी के बाहिर ईशान कोण में रैवतक नाम का पर्वत था / उस रैवतक पर्वत पर नन्दनवन नाम का एक उद्यान था। उस उद्यान का वर्णन औपपातिकसूत्र के वन-वर्णन के समान जान लेना चाहिए। वहाँ सुरप्रियनामक यक्ष का एक मंदिर था, वह बहुत प्राचीन था और चारों ओर से अनेकविध वृक्षसमुदाय से युक्त वनखंड से घिरा हुआ था / उस वनखंड के मध्य में एक सुन्दर अशोक वृक्ष था।" विवेचन-"बारवई' इस पद का संस्कृतरूप द्वारवती होता है। यह कृष्ण महाराज की नगरी का नाम है / वैदिक परंपरा में इसी को द्वारका कहते हैं। इस प्रकार द्वारवती तथा द्वारका ये दोनों शब्द एक ही नगरी के बोधक हैं। इस सूत्र के अनुसार द्वारका नगरी “दुवालसजोयणायामा (द्वादशयोजनायामा) अर्थात बारह योजन लम्बी थी। प्रस्तुत में योजन का माप “आत्मांगुल' से करना है। जिस काल में जो मनुष्य होते हैं उनके अपने अंगुल को प्रात्मांगुल कहते हैं। 66 अंगुल का एक धनुष होता है और दो हजार धनुषों का एक कोस, तथा चार कोस का एक योजन होता है। इस तरह द्वारका नगरी की लम्बाई 48 कोस की थी / 48 कोस जितने लम्बे विशाल क्षेत्र में द्वारका नगरी को बसाया गया था। 'धरणवइ-मइ-निम्माया' अर्थात्-जिस नगरी का निर्माण कुबेर की बुद्धि द्वारा हा, उसे धनपतिमति-निर्माता कहते हैं। प्रश्न होता है कि क्या मर्त्यलोक में कोई देव कुबेरादि नगरी का निर्माण करने आते हैं ? इसका समाधान एक रहस्य में है-"जब यादव जरासंध प्रतिवासुदेव के आतंक से आतंकित हो गए और शौर्यपुर को छोड़कर समुद्र के समीप सौराष्ट्र में पहुंचे, तब नगरी के योग्य तथा सुरक्षित स्थान देखकर कृष्ण महाराज ने वहाँ अट्ठम तप किया, धनपति वैश्रमरण का अाराधन किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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