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________________ भी बालमुनि हुए हैं, वे कम से कम आठ वर्ष की उम्र के थे। भगवान महावीर ने साधना की दृष्टि से वय को प्रधानता नहीं दी। जिस साधक में योग्यता है वह वय की दृष्टि से भले ही लघु हो, प्रव्रजित हो सकता है। भगवान महावीर ने अतिमुक्तक कुमार की प्रान्तरिक योग्यता को निहार कर ही दीक्षा प्रदान की थी। जैन इतिहास में ऐसे सैकड़ों तेजस्वी साधक हुए हैं जिन्होंने बाल्यावस्था में प्रार्हती दीक्षा ग्रहण कर जैन धर्म को विपुल प्रभावना की थी। चतुर्दशपूर्वधारी प्राचार्य शय्यंभव ने अपने पुत्र मरणक'२ को, आर्य सिंहगिरि ने वनस्वामी को बालवय में दीक्षा दी थी। आचार्य हेमचन्द्र उपाध्याय यशोविजय जी आदि बालदीक्षित ही थे / प्राचार्यसम्राट् प्रानन्द ऋषि जी म०, युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी ग्रादि भी नौ दस वर्ष की नन्ही उम्र में श्रमरण बने हैं / प्रागम साहित्य और परवर्ती साहित्य में कहीं भी ऐसी दीक्षा का निषेध नहीं है। अयोग्य दीक्षा का निषेध है। निशीथ भाष्य'3 में अत्यन्त लघुक्य में बालक को दीक्षा देने का निषेध किया है और उसके लिए जो कारण प्रस्तुत किये हैं वे अयोग्य दीक्षा से ही अधिक सम्बन्धित हैं / महावग४ बौद्ध ग्रन्थ में भी इसी प्रकार निषेध है। निशीथभाष्य५५ में आगे चलकर योग्य बालक को, जो लघुवय का भो हो दीक्षा देने की अनुमति दी है, क्योंकि बालक बुद्ध ही . द्वमान भी होते हैं, प्रबल प्रतिभा के धनी भी होते हैं, जिन्होंने इतिहास के पष्ठों को बदल दिया है। अतिमुक्तक मुनि का कथानक इस तथ्य का ज्वलंत उदाहरण है / अतिमुक्तक कुमार ने माता-पिता को कहा-पूज्यवर ! मैं अपनी विराट शक्ति को जानता हूं। मैं अंगारों पर मुस्कराता हुआ चल सकता हूं और शूलों पर भी बढ़ सकता हूं। मैं यह जानता हूं कि जो जन्मा है वह अवश्य ही मरेगा पर कब और किस प्रकार मरेगा यह मुझे परिज्ञात नहीं है। उनके तर्कों के सामने माता-पिता भी मौन हो गये। भगवती५६ सूत्र में अतिमुक्तक मुनि के श्रमणजीवन की एक घटना आई है— स्थविरों के साथ प्रतिमुक्तक मुनि शौचार्थ बाहर जाते हैं / वर्षा कुछ समय पूर्व ही हुई थी, अत: पानी तेजी से बह रहा था। बहता पानी देख कर उनके बाल-संस्कार उभर आये / मिट्टी की पाल बांधकर जल के प्रवाह को रोका। अपना पात्र उसमें छोड दिया। प्रानन्दविभोर होकर वह बोल उठे---'तिर मेरी नैया तिर' पवन ठमक ठमक कर चल रहा था। अतिमुक्तक की नैया थिरक रही थी। प्रकृति मुस्करा रही थी। पर स्थविरों को श्रमणमर्यादा के विपरीत यह कार्य कैसे सहन हो सकता था ! अन्तर का रोष मुखकर झलक रहा था। अतिमुक्तक एकदम संभल गये / अपनी भूल पर अन्दर ही अन्दर पश्चात्ताप करने लगे ! पश्चात्ताप ने उनको पावन बना दिया। स्थविरों से भगवान् ने कहा--प्रतिमुक्तक मुनि इसी भव में मुक्त होगा। भगवान् ने अत्यन्त मधुर स्वर में कहा-इसकी हीलना, निन्दना और गर्हणा मत करो। यह निर्मल पात्मा है। यह वय से लघु है किन्तु इसका ग्रात्मा हिमगिरि से भी अधिक उन्नत है। सातवें और पाठवें वर्ग में सम्राट श्रेणिक की नन्दा, नन्दवती, नन्दोत्तरा, नन्दश्रेणिका प्रति तेबीस महारानियों का वर्णन है, जिन्होंने भगवान् महावीर के पावन-प्रवचनों से प्रभावित होकर श्रमणधर्म स्वीकार किया, एकादश अंगों का अध्ययन किया और इतने उत्कृष्ट तप की आराधना की जिसे पढते-पढ़ते ही रोंगटे 52. परिशिष्टपर्व-सर्ग 5, प्राचार्य हेमचन्द्र 53. निशीथ भाष्य 11,-3531 32 54. महावग्ग-१ / 41-92, पृ. 80-81, तुलना करें / 55. निशीथ भाष्य 11-3537 / 39 56. भगवती शतक 5 / उद्दे. 4 [30] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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