________________ पश्चात् कुछ अपवादों को छोड़कर श्रत साहित्य में परिवर्तन नहीं हुआ / वर्तमान में जो प्रागमसाहित्य उपलब्ध है, उसके संरक्षण का श्रेय देवद्धिगरिग क्षमाश्रमण को है। यह साधिकार कहा जा सकता है कि वर्तमान में उपलब्ध ग्रागम-साहित्य को मौलिकता असंदिग्ध है। कुछ स्थलों पर भले ही पाठ प्रक्षिप्त व परिवतित हुए हों, किन्तु उससे आगमों की प्रामाणिकता में कोई अन्तर नहीं पाता / अन्तकद्दशा यह पाठवां अंग सुत्र है। प्रस्तुत अंग में जन्म मरण की परम्परा का अन्त करने वाले विशिष्ट पवित्र-चरित्रात्माओं का वर्णन है और उसके दश अध्ययन होने से इस का नाम अन्तकृद्दशा है / समवायांग सूत्र में प्रस्तुत पागम के दश अध्ययन और सात वर्ग बताये हैं। प्राचार्य देववाचक ने नन्दीसूत्र में पाठ वर्गों का उल्लेख किया है पर दश अध्ययनों का नहीं आचार्य अभयदेव ने समवायांग वति में दोनों ही उपर्युक्त प्रागमों के कथन में सामंजस्य बिठाने का प्रयास करते हुए लिखा है कि प्रथम वर्ग में दश अध्ययन हैं, इस दृष्टि से समवायांग सूत्र में दश अध्ययन और अन्य वर्गों की अपेक्षा से सात वर्ग कहे हैं / नन्दीसूत्रकार ने अध्ययनों का कोई उल्लेख न कर केवल पाठ वर्ग बताये हैं। पर प्रश्न यह है कि प्रस्तुत सामंजस्य का निर्वाह अन्त तक किस प्रकार हो सकता है ? बयोंकि समवायांग में ही अन्तकद्दशा के शिक्षाकाल (उद्देशनकाल) दश कहे हैं जबकि नन्दी सूत्र में उनकी संख्या पाठ बताई है / आचार्य अभयदेव ने स्वयं यह स्वीकार किया है कि हमें उद्देशनकालों के अन्तर का अभिप्राय ज्ञात नहीं है।११ प्राचार्य जिनदासमणी महत्तर ने नन्दी चणि में१२ और प्राचार्य हरिभद्र ने नन्दोवति३ में लिखा है कि प्रथम वर्ग के दश अध्ययन होने से इस पागम का नाम 'अन्तगडदशायो' है। चरिणकार ने दशा का अर्थ अवस्था किया है / 14 थह स्मरण रखना होगा कि समवायांग में दश अध्ययनों का निर्देश तो है पर उन अध्ययनों के नामों का संकेत नहीं है। स्थानाङ्ग में दश अध्ययनों के नाम इस प्रकार बताये हैं.--नमि, मातंग, सोमिल, रामगप्न, सूदर्शन, जमालि, भगाली, किंकष, चिल्वरक, और फाल अंबडपूत्र / 15 प्राचार्य प्रकलंक ने राजवार्तिक 16 में और प्राचार्य शुभचन्द्र ने अंगपण्णति१७ ग्रन्थ में कुछ पाठभेद के साथ दश नाम दिये हैं। वे इस प्रकार हैं- नमि, मातंग, सोमिल, रामगप्त, सुदर्शन, यमलोक, वलीक, कंबल, पाल और अंबष्टपुत्र / इसमें यह भी लिखा है कि प्रस्तुत प्रागम में हर एक तीर्थंकरों के समय में होने वाले दश-दश अन्त कत केवलियों का वर्णन है। इस कथन का समर्थन जयध्रबलाकार वीरसेन और जयसेन ने भी किया है।१८ 8. समवायांग प्रकीर्णक समवाय 96. 9, नन्दी सुत्र 88. 10. समवायांगवृत्ति पत्र 112. 11, समवायांमवृत्ति पत्र 112. 12. नन्दीसूत्र चूर्णिसहित पत्र 68. 13. नन्दी सूत्र वत्ति सहित पत्र 83. 14. नन्दी सूत्र चूरिणसहित पृ. 68. 15. स्थानाङ्ग 10 / 113. 16. तत्वार्थ राजवार्तिक 1 / 20 प. 73. 17. अंगपत्ती 51. 18. कसायपाहुड, भाग 1, पृ. 130. [ 23 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org