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________________ जैन परम्परा में अर्हत् के द्वारा कथित, गणधर, प्रत्येकबुद्ध या स्थविर द्वारा ग्रथित वाङमय को प्रमाणभूत माना है। इसलिए आगम वाङमय के कर्तृत्व का श्रेय महनीय महषियों को है / अङ्ग साहित्य के उद्गाता स्वयं तीर्थकर हैं और सूत्रबद्ध रचना करने वाले प्रज्ञापुरुष गणधर हैं। अंगबाह्य साहित्य की रचना के मूल प्राधार तीर्थंकर हैं और सूत्रित करने वाले हैं चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी, और प्रत्येकबुद्ध प्राचार्य / प्राचार्य वट्टकेर ने मूलाचार में गणधरकथित, प्रत्येकबुद्ध कथित और अभिन्नदशपूर्वीकथित सूत्रों को प्रमाणभूत ___ इस दृष्टि से हम इस सत्य तक पहुंचते हैं कि वर्तमान उपलब्ध अंगप्रविष्ट साहित्य के उद्गाता स्वयं तीर्थंकर भगवान् महावीर हैं और रचयिता हैं, उनके अनन्तर शिष्य गणधर सुधर्मा / अंगबाह्य साहित्य में कर्तत्व की दृष्टि से कितने ही प्रागम स्थविरों के द्वारा रचित हैं और कितने ही प्रागम द्वादशांगों से नियूंढ़ यानी उद्धृत हैं। वर्तमान में जो अंगसाहित्य उपलब्ध है वह गणधर सुधर्मा की रचना है, जो भगवान् महावीर के समकालीन हैं। इसलिये वर्तमान अंग-साहित्य का रचनाकाल ई. पू. छठी शताब्दी सिद्ध होता है। अंग बाह्य साहित्य की रचना एक व्यक्ति की नहीं है, अतः उन सभी का एक काल नहीं हो सकता / दशवकालिक सूत्र की रचना प्राचार्य शय्यंभव ने की है तो प्रज्ञापना सूत्र के रचयिता श्यामाचार्य हैं। छेदसूत्रों के रचयिता चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु हैं तो नन्दीसूत्र के रचयिता देववाचक हैं। आधुनिक कुछ पाश्चात्य चिन्तक जैन प्रागमों का रचनाकाल देवद्धिगणि क्षमाश्रमण का काल मानते हैं, जिनका समय महाबीर निर्धारण के पश्चात् 960 अथवा ९९३वा वर्ष है। पर उन का यह मानना उचित नहीं है / देवद्धि गणि ने प्रागमों को लिपिबद्ध किया था, किन्तु अागम तो प्राचीन ही हैं / कितने ही विज्ञगरण लेखन-काल को और रचना-काल को एक दूसरे में मिला देते है और आगमों के लेखन-काल को पागमों का रचना-काल मान बैठते हैं ! पहले थ त साहित्य लिखा नहीं जाता था / लिखने का निषेध होने से वह कण्ठस्थ रूप में ही चल रहा था / चिरकाल तक वह कण्ठस्थ रहा जिससे श्रुतवचनों में परिवर्तन होना स्वाभाविक था। देवद्धिगणि क्षमाश्रमरा ने तीब्र गति से ह्रास की ओर बहती हुयी श्रत-स्रोतस्विनी को पुस्तकारूढ़ कर रोक दिया। उन के 3. अहत्प्रोक्तं गगधरहन्धं प्रत्येकबुद्धदब्धं च / स्थविरग्रथितं न तथा प्रमाणभतं विधासूत्रम् / 4. द्रोणमूरि, प्रोपनियुः पृ. 3. 5. सुत्त गणधरकथिदं, तहेव पत्ते यबुद्धकथिदं च / सुदकेवलिणा कथिदं अभिषणदशपुविकथिदं च / / मूलाचार 5,80. 6. क. दशकालिकसूत्रचूणि-पृष्ट-२१. ख. निशीथभाष्य-४००४ ग. सूत्रकृतांग-शीलांकाचार्य वृत्ति पत्र 336. घ. स्थानांग, अभयदेव वृत्ति प्रारम्भ / 7. क. वलहिपुरम्मि नयरे, देवदिडपमुहेण समरणसंघेण / पुत्थाइ मागम लिहिलो नवसय असीग्रानो वीराम्रो / / अर्थात् ईस्वी 453, मतान्तर से ई. 466, एक प्राचीन गाथा / ख. कल्पसूत्र--देवेन्द्र मुनि शास्त्री, महावीर अधिकार / [22] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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