________________ 160] [ अन्तकृद्दशा भगवान् ने पूर्वभवों का स्मरण करते हुए संयम में धृति रखने का उपदेश दिया, जिससे मेघ मुनि संयम में स्थिर हो गया। ___ एक मास की संलेखना की / सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप से उत्पन्न हुन्ना / महाविदेहवास से सिद्ध होगा। (11) स्कन्दक मुनि स्कन्दक संन्यासी श्रावस्ती नगरी के रहने वाले गद्दभालि परिव्राजक का शिष्य था और गौतम स्वामी का पूर्व मित्र था। भगवान् महावीर के शिष्य पिङ्गलक निर्ग्रन्थ के प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सका; फलतः श्रावस्ती के लोगों से जब सुना कि भगवान महावीर कृनंगला नगर के बाहर छत्र-पलाश उद्यान में पधारे हैं, तो स्कन्दक भी भगवान् के पास जा पहुंचा / अपना समाधान मिलने पर वह वहीं पर भगवान् का शिष्य हो गया। स्कन्दक मुनि ने स्थविरों के पास रहकर 11 अंगों का अध्ययन किया। भिक्षु की 12 प्रतिमाओं की क्रम से साधना की, आराधना की। गुणरत्नसंवत्सर तप किया। शरीर दुर्बल, क्षीण और अशक्त हो गया / अन्त में राजगृह के समीप विपुल-गिरि पर जाकर एक मास की संलेखना की। काल करके 12 वे देवलोक में गया / वहाँ से महाविदेहवास से सिद्ध होगा। स्कन्दक मुनि की दीक्षा-पर्याय 12 वर्ष की थी। (12) सुधर्मा स्वामी ये कोल्लाग संनिवेश के निवासी अग्निवैश्यायन गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिता धम्मिल थे और माता भद्दिला थीं। पांच सौ छात्र इनके पास अध्ययन करते थे / पचास वर्ष की अवस्था में शिष्यों के साथ प्रव्रज्या ली / बयालीस वर्ष पर्यन्त छद्मावस्था में रहे। महावीर के निर्वाण के बाद बारह वर्ष व्यतीत होने पर केवली हुए और पाठ वर्ष तक केवली अवस्था में रहे। श्रमण भगवान के सर्व गणधरों में सुधर्मा दीर्घजीवी थे, अत: अन्यान्य गणधरों ने अपने-अपने निर्वाण के समय अपने-अपने गण सुधर्मा को समर्पित कर दिये थे।' महावीरनिर्वाण के 12 वर्ष बाद सुधर्मा को केवलज्ञान प्राप्त हुआ और बीस वर्ष के पश्चात् सौ वर्ष की अवस्था में मासिक अनशन-पूर्वक राजगृह के गुणशीलचैत्य में निर्वाण प्राप्त किया / (13) श्रेणिक राजा मगध देश का सम्राट् था / अनाथी मुनि से प्रतिबोधित होकर भगवान् महावीर का परम भक्त हो गया था। ऐसी एक जन-थ ति है। 1. (क) जीवंते चेव भट्टारए रणवहिं जणेहिं अज्ज सुधम्मस्स गणो णिक्खित्तो दोहाउम्गेत्ति णातु / - कल्पसूत्र चूणि 201. (ख) परिनिया गणहरा जीवंते नायए नव जणा उ, इंदभूई सुहम्मो अ, रायगिहे निव्वए वीरे / -मावश्यक नियुक्ति गा. 658. 2. यावश्यक नियुक्ति, 655. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org