________________ शैली प्रस्तुत आगम की रचना कथात्मक शैली में की गई है, इस शैली को प्राचीन पारिभाषिक शब्दावली में 'कथानुयोग' कहा जाता है / इस शैली में "तेणं कालेणं तेणं समएणं' इस शब्दावली से कथा का प्रारम्भ किया जाता है। प्रागमों में ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशांग, अनुत्तरौपपातिक, विपाकसूत्र और अन्तकृद्दशांग सूत्र का इसी शैली में निर्माण किया गया है। अर्धमागधी भाषा में शब्दों के दो रूप उपलब्ध होते हैं -परिवसति, परिवसइ, रायवण्णतो, रायवण्णओ, एगवीसाते, एगवीसाए। इस पागम में प्रायः स्वरान्तरूप ग्रहण करने की शैली को अपनाया गया है। नागमों में प्रायः संक्षिप्तीकरण की शैली को अपनाते हुए शब्दान्त में बिन्दुयोजना द्वारा अथवा अंकयोजना द्वारा अवशिष्ट पाठ को व्यक्त करने की प्राचीन शैली प्रचलित है। प्रागमोदय समिति द्वारा प्रकाशित 'अन्तकृद्दशांग सूत्र' में इसी शैली को अपनाया गया था, किन्तु श्री अमोलक ऋषिजी महाराज स्मारक ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित 'अन्तकृशांग सूत्र' में पूर्णपाठ देने की शैली को स्वीकार किया गया है / इस शैली की वाचना में अत्यन्त सुविधा रहती है। इसी सुविधा को लक्ष्य में रखते हुए मूल पाठ को पूर्णरूपेण न्यस्त करने की शैली हमें भी अपनानी पड़ी है। इस सूत्र में यथास्थान अनेक तपों का वर्णन प्राप्त होता है, अष्टम वर्ग में विशेष रूप से तपों के स्वरूप एवं पद्धतियों का विस्तृत विवेचन किया गया है। इन तपों के अनेकविध स्थापनायन्त्र प्राप्त होते हैं। हमने उन समस्त स्थापना-यन्त्रों को कलात्मक रूप देकर अाकर्षक बनाने का प्रयास किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ को वर्णन शैली अत्यंत व्यवस्थित है। इसमें प्रत्येक साधक के नगर, उद्यान, चैत्य-व्यंतरायतन, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलोक एवं परलोक की ऋद्धि, पाणिग्रहण और प्रीतिदान, भोगों का परित्याग, प्रत्रज्या, दीक्षाकाल, श्रु तग्रहरण, तपोपधान, संलेखना और अन्त क्रिया का उल्लेख किया गया है / ___'अन्त गडदशा' में वरिंगत साधक पात्रों के परिचय से प्रकट होता है कि श्रमण भगवान महावीर के शासन में विभिन्न जाति एवं श्रेणी के व्यक्तियों को साधना में समान अधिकार प्राप्त था / एक पोर जहाँ बीसियों राजपुत्र-राजरानी और गाथापति साधनापथ में चरण से चरण मिला कर चल रहे थे, दूसरी ओर वहीं कतिपय उपेक्षित वर्गवाले क्षद्र जातीय भी ससम्मान इस साधनाक्षेत्र में आकर समान रूप से आगे बढ़ रहे थे। वय की दृष्टि से अतिमुक्त जैसे बाल मुनि और गजसुकुमार जैसे राज-प्रासाद के दुलारे गिने जाने वाले भी इस क्षेत्र में उतर कर सिद्धि प्राप्त कर गये। अन्तगडदसा सूत्र के मनन से ज्ञात होता है कि गौतम आदि, 18 मुनियों के समान 12 भिक्ष प्रतिमा एवं गुणरत्न-संवत्सर तप की साधना से भी साधक कर्म-क्षय कर मुक्ति लेता है। प्राप्त कर अनीकसेनादि मुनि 14 पूर्व के ज्ञान में रमण करते हुए सामान्य बेले 2 की तपस्या से कर्म क्षय कर मुक्ति के अधिकारी बन गए। अर्जुनमाली ने उपशम भाव-क्षमा की प्रधानता से केवल छह मास बेले 2 की तपस्या कर सिद्धि प्राप्त कर ली। दूसरी ओर अतिमुक्त कुमार ने ज्ञान-पूर्वक गुण-रत्न तप की साधना से सिद्धि मिलाई और गजसुकुमाल ने बिना शास्त्र पढ़े और लम्बे समय तक साधना एवं तपस्या किए बिना ही केवल एक शुद्ध ध्यान के बल से ही सिद्धि प्राप्त करली। इसके प्रकट होता है कि ध्यान भी एक बड़ा तप है। काली अादि रानियों ने संयम लेकर कठोर साधना की और लम्बे समय से सिद्धि मिलाई / इस प्रकार कोई सामान्य तप से, कोई कठोर तप से, कोई क्षमा की प्रधानता से तो कोई अन्य केवल प्रात्मध्यान की अग्नि में कर्मों को झोंक कर सिद्धि के अधिकारी बन गए / [17 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org