________________ अन्तकृद्दशांग में नहीं है / नंदीसूत्र में वर्तमान में उपलब्ध प्रस्तुत आगम के स्वरूप का वर्णन है। इस समय अन्तकृतद्दशांग में पाठ वर्ग हैं और प्रथम वर्ग के दश अध्ययन हैं। किन्तु इनके नाम स्थानांग, राजवात्तिक व अंगपम्पत्ती से पृथक हैं। जैसे---गौतम, समुद्र, सागर, गंभीर, स्तिमित, अचल, कांपिल्य, प्रक्षोभ, प्रसेनजित और विष्णु / स्थानांगवृत्ति में प्राचार्य अभयदेव ने इसे बाचनान्तर लिखा है।' इससे यह ज्ञात होता है कि वह समवायांग में वरिंगत वाचना से पृथक् है / प्रस्तुत प्रागम में एक श्र तस्कन्ध, आठ वर्ग, 90 अध्ययन, 8 उद्देशनकाल, समुद्देशनकाल और परिमित वाचनाएँ हैं। इसमें अनुयोगद्वार, वेढा, श्लोक, नियुक्तियाँ, संग्रहरिणयाँ एवं प्रतिपत्तियाँ संख्यात संख्यात हैं / इसमें पद संख्यात और अक्षर संख्यात हजार बताये गये हैं। वर्तमान में प्रस्तुत अंग 900 श्लोकपरिमारण हैं। इसके आठ वर्ग हैं और एक ही श्रु तस्कन्ध है / प्रत्येक वर्ग के पृथक्-पृथक् अध्ययन हैं / जैसे कि पहले और दूसरे वर्ग में दस-दस अध्ययन रखे गए हैं, तृतीय वर्ग के तेरह अध्ययन हैं, चतुर्थ और पंचम वर्ग के भी दस-दस अध्ययन हैं, छठे वर्ग के सोलह अध्ययन हैं, सातवें वर्ग के तेरह अध्ययन और पाठवें वर्ग के दस अध्ययन हैं, किन्तु प्रत्येक अध्ययन के उपोद्घात में इस विषय को स्पष्ट किया गया है कि 'अमुक अध्ययन का तो अर्थ श्रीश्रमरण भगवान महावीर स्वामी ने इस प्रकार से वर्णन किया है, तो इस अध्ययन का क्या अर्थ बताया है ?' इस प्रकार की शंका के समाधान में श्रीसुधर्मास्वामी श्रीजम्बूस्वामी के प्रति प्रस्तुत अध्ययन का अर्थ वर्णन करने लग जाते हैं, अतः यह शास्त्र सर्वज्ञ-प्रणीत होने से सर्वथा मान्य है। यद्यपि अन्तकृद्दशांग सूत्र में भगवान् अरिष्टनेमि और भगवान् महावीर स्वामी के ही समय में होनेवाले जीवों की संक्षिप्त जीवनचर्या का दिग्दर्शन कराया गया है, तथापि अन्य तीर्थकरों के शासन में होनेवाले अन्तकृत केवलियों की भी जीवन-चर्या इसी प्रकार जान लेनी चाहिए। कारण कि-द्वादशांगीवाणी शब्द से पौरुषेय है और अर्थ से अपौरुषेय है। यह शास्त्र भव्य प्राणियों के लिये मोक्ष-पथ का प्रदर्शक है, अत: इसका प्रत्येक अध्ययन मनन करने योग्य है। यद्यपि काल-दोष से प्रस्तुत शास्त्र श्लोक-संख्या में तथा पद-संख्या में अल्प सा रहा गया है, तथापि इसका प्रत्येक पद अनेक अर्थों का प्रदर्शक है, यह विषय अनुभव से ही गम्य हो सकेगा, विधिपूर्वक किया हुआ इसका अध्ययन निर्वाण-पथ का अवश्य प्रदर्शक होगा। गणधर श्रीसुधर्मा स्वामीजी की वाचना का यह प्राठवां अंग है। भव्य जीवों के बोध के लिये ही इसमें कतिपय जीवों की संक्षिप्त जीवन-चर्या का दिग्दर्शन कराया गया है। प्रस्तुत प्रागम की भाषा :-- मागधी मगध देश की बोली थी, उसे साहित्यिक रूप देने के लिये उसमें कुछ विशेष शब्दों का एवं प्रान्तीय बोलियों का मिश्रण भी हो गया, अतः आगम-भाषा को अर्धमागधी कहा जाने लगा। आगमकार कहते हैं कि अर्धमागधी तीर्थंकरों, गरगधरों और देवों को प्रिय भाषा है, हो भी क्यों न ? लोक-भाषा की सर्वप्रियता सर्वमान्य ही तो है। लोकोपकार के लिये लोकभाषा का प्रयोग अनिवार्य भी तो है। प्रस्तुत प्रागम की भाषा भी अर्धमागधी है। 1. ततो वाचनान्तरापेक्षागीमानीति सम्भावयामः / -स्थानांगवृत्ति, पत्र 483. [16] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org