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________________ 118 ] [ अन्तकृद्दशा प्रवृत्ति करनेवाले हैं, वे क्रमश: विचरण करते हुए यहाँ पधारे हैं, यहाँ आ चुके हैं, यहाँ विराजमान हैं। इसी राजगृह नगर के बाहर, गुणशील चैत्य में, संयमियों के योग्य स्थान को ग्रहण करके, संयम और तप से आत्मा को भावित कर रहे हैं / हे देवानुप्रियो ! तथारूप-महाफल की प्राप्ति कराने रूप स्वभाववाले अर्थात् अरिहंत के गुणों से युक्त भगवान् के नाम (पहचान के लिये बनी हुई लोक में रूढ संज्ञा) गोत्र (गुण के अनुसार दिया हुआ नाम) को भी सुनने से महत्फल की प्राप्ति होती है, तो फिर उनके निकट जाने, स्तुति करने, नमस्कार करने, संयमयात्रादि की समाधिपृच्छा करने और उनकी उपासना करने से होनेवाले फल की तो बात हो क्या ? अर्थात् निश्चय ही महत्फल की प्राप्ति होती है। उनके एक भी आर्य (श्रेष्ठ गुणों को प्राप्त कराने वाले और धार्मिक उत्तम वचन को सुनने से और विपुल अर्थ को ग्रहण करने से होने वाले फल की तो बात ही क्या है ? सुदर्शन का बन्दनार्थ गमन --तए णं तस्स सुदंसणस्स बहुजणस्स अंतिए एयं अर्से सोच्चा निसम्म अयं अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था---एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाव' विहरइ / तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वदामि णमंसायि; एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं जाब' एवं वयासो "एवं खलु अम्मयायो ! समणे भगवं महावीरे जाब विहरइ। तं गच्छामि गं समणं भगवं महावीरं वदामि नमसामि जाव [सक्कारेमि सम्मामि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं] पज्जुवासामि / " तए णं सुदंसणं सेट्टि अम्मापियरो एवं वयासो-"एवं खलु पुत्ता! अज्जुणए मालागारे जाव घाएमाणे-धाएमाणे विहरइ। तं मा णं तुमं पुत्ता ! समणं भगवं महावीरं बंदए निग्गच्छाहि, मा णं तव सरीरयस्स वावत्ती भविस्सइ / तुमण्णं इहगए चेव समणं भगवं महावीरं वंदाहि / तए णं से सुदंसणे सेट्ठी अम्मापियरं एवं क्यासी-"किण्णं अहं अम्मायाग्रो ! समणं भगवं महावीरं इहमागयं इह पत्तं इह समोसढं इह गए चेव बंदिस्सामि नमंसिस्सामि ? तं गच्छामि णं अहं अम्मयाओ! तुभेहि प्रभYण्णाए समाणे समणं भगवं महावीर वदामि नमामि जाव पज्जुवासामि। तए णं सुदंसर्ण सेट्टि अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति बहूहि प्राघवणाहि जाव' परूवेत्तए ताहे एवं वयासी-"महासहं देवाणुप्पिया !" तए णं से सुदंसणे अम्मापिईहि प्रभणण्णाए समाणे व्हाए सद्धप्पावेसाई जाव मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिए अपमहरघाभरणालंकिया सरीरे सयानो गिहाम्रो पडिणिक्खमई. प पायविहारचारेणं रायगिहं नयर मझमझेणं निम्गच्छइ, निग्गच्छित्ता मोग्गरपाणिस्स जक्खस्स जक्खाययणस्स अदूरसामंतेणं जेणेव गुणसिलए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। 1. इसी सूत्र में 3. इसी सूत्र में 5. वर्ग 3, सूत्र 18. 2. वर्ग 5. सूत्र 4. 4. वर्ग 6. सूत्र 5. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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