SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षष्ठ वर्ग ] [117 उस राजगह नगर में सुदर्शन नाम के एक धनाढ्य सेठ रहते थे। वे श्रमणोपासक-श्रावक थे और जीव-अजीव के अतिरिक्त [पुण्य और पाप के स्वरूप को भी जानते थे। इसी प्रकार प्रास्रव संवर निर्जरा क्रिया (कर्मबंध की कारणभूत पच्चीस प्रकार की क्रियाओं), अधिकरण (कर्मबंध का साधन-शस्त्र) तथा बंध और मोक्ष के स्वरूप के ज्ञाता थे। किसी भी कार्य में वे दूसरों की सहायता की अपेक्षा नहीं रखते थे। निर्ग्रन्थ-प्रवचन में इतने दृढ़ थे कि देव, असुर, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किपूरुष गरुड, गंधर्व, महोरगादि देवता भी उन्हें निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित नहीं कर सकते थे। उन्हें निर्ग्रन्थप्रवचन में शंका, कांक्षा और विचिकित्सा (फल में सन्देह) नहीं थी। उन्होंने शास्त्र के परमार्थ को समझ लिया था। वे शास्त्र का अर्थ-रहस्य निश्चित रूप से धारण किए हुए थे। उन्होंने शास्त्र के सन्देह-जनक स्थलों को पूछ लिया था, उनका ज्ञान प्राप्त कर लिया था, उनका विशेष रूप से निर्णय कर लिया था। उनकी हड्डियाँ और मज्जा सर्वज्ञ देव के अनुराग से अनुरक्त हो रही थीं। निर्गन्थप्रवचन पर उनका अटूट प्रेम था। उनकी ऐसी श्रद्धा थी कि-आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थप्रवचन ही सत्य है, परमार्थ है, परम सत्य है, अन्य सब अनर्थ (असत्यरूप) हैं। उनकी उदारता के कारण उनके भवन के दरवाजे की अर्गला ऊंची रहती थी, उनका द्वार सब के लिये खुला रहता था। वे जिसके घर में या अन्तःपुर में जाते उसमें प्रीति उत्पन्न किया करते थे। वे शीलव्रत (पांचों अणव्रत) गुणवत, विरमण (रागादि से निवृत्ति) प्रत्याख्यान, पौषध, उपवास आदि का पालन करते तथा चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन परिपूर्ण पौषधव्रत किया करते थे। श्रमणों-निर्ग्रन्थों को निर्दोष अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल. रजोहरण, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, प्रौषध और भेषज आदि का दान करते हुए, महान् लाभ प्राप्त करते थे, तथा स्वीकार किये तप-कर्म के द्वारा अपनी प्रात्मा को भावित-वासित करते हुए] विहरण कर रहे थे। भगवान् महावीर का पदार्पण 8 तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे जाव' विहरइ। तए णं रायगिहे णयरे, सिंघाडग जाव' महापहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव [एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं परूबेइ-"एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे, प्राइगरे तित्थयरे सयंसंधुद्ध, पुरिसुत्तमे जाव संपाविउकामे, पुव्वाणुपुन्धि चरमाणे, गामाणुगामं दूइज्जमाणे, इहमागए, इह संपत्ते, इह समोसढे इहेव रायगिहे णयरे बाहि गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।" तं महाफलं खलु भो देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरहताणं भगवंताणं णामगोयस्स वि सवणयाए; किमंग पुण अभिगमण-वंदण-णमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए? एगस्स वि प्रायरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए; ] किमंग पुण विउलस्स प्रत्थस्स गहणयाए ? उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर राजगृह पधारे और बाहर उद्यान में ठहरे / उनके पधारने के समाचार सुनकर राजगृह नगर के शृगाटक राजमार्ग आदि स्थानों में बहुत से नागरिक परस्पर इस प्रकार वार्तालाप करने लगे- [विशेष रूप से कहने लगे, प्रकट रूप से एक ही ग्राशय को भिन्न भिन्न शब्दों के द्वारा प्रकट करने लगे, कार्य-कारण की व्याख्या सहित-तर्क युक्त कथन करने लगे---''हे देवानुप्रिय ! बात ऐसी है कि श्रमण भगवान् महावीर जो स्वयं संवुद्ध, धर्मतीर्थ के आदिकर्ता और तीर्थकर हैं, पुरुषोत्तम हैं यावत् सिद्धिगति रूप स्थान की प्राप्ति के लिये 1. वर्ग 5. सूत्र 1, 2. वर्ग 6. सूत्र 6. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy