________________ दशा: दशा नामक दुसरा अवयव दशा' शब्द है / जैन संस्कृति में दशा शब्द के दो रूह अर्थ हैं : (1) जीवन को भोगावस्था से योगावस्था की मोर गमन 'दशा' कहलाता है, दूसरे शब्दों में शुद्ध अवस्था की ओर निरन्तर प्रगति ही "दशा" है। प्रस्तुत सूत्र में प्रत्येक अन्तकृत साधक निरन्तर शुद्धावस्था की ओर गमन करता है अत: इस ग्रन्थ में अन्तकृत साधकों की दशा के वर्णन की ही प्रधानता होने से "अन्तकृत दशा" कहा गया है। (2) जिस आगम में दश अध्ययन हों उस आगम को भी 'दशा' कहा जाता है। प्रस्तुत प्रागम में आठ वर्ग हैं। इनमें से प्रथम (आदि) चतुर्थ, पंचम (मध्य) और पाठवें वर्ग (अन्त) में दस-दस अध्ययन हैं। इस प्रकार प्रादि, मध्य और अन्त में दस-दस अध्ययन होने के कारण भी प्रस्तुत प्रागम को “अन्तकृत् दशा" नाम दिया गया है। अंग: तीर्थङ्करों ने जो उपदेश दिए हैं उनके दो अंग थे---शब्द और अर्थ / तीर्थंकरों के पट्टशिष्य उन दो अंगों में से एक अंग अर्थ को ही ग्रहण कर पाते हैं, अत: भगवान की बागी का अंग होने से प्रागमों को अंग भी कहा जाता है। प्रस्तुत ग्रन्थ भी भगवान महावीर की वाणी का अर्थत: अंग है, अत: इसके नाम का तीसरा भाग "अंग' है। सूत्रः क्योंकि समस्त जैनागम शब्द की अपेक्षा अल्प और अर्थ की अपेक्षा विशाल हैं, अत: समस्त प्रागमों को सूत्र कहा गया है / इसीलिये प्रस्तुत प्रागम के नामकरण का चौथा अवयव 'सूत्र' में रूप के रखा गया है। इस प्रकार चार अवयवों को मिलाकर प्रस्तुत शास्त्र का नामकरण 'ग्रन्तकृदशांगसूत्र' किया गया है। इस के नाम को सार्थकता स्वयं इसके अध्ययन से विदित हो जाती है। यद्यपि मोक्षगामी पुरुषों की गौरव गाथा तो अन्य शास्त्रों में भी प्राप्त होती है, पर इस शास्त्र में केवल उन्हीं संत मतियों के जीवन-परिचय जिन्होंने इसी भव से जन्म-जरा-मरण रूप भवचक्र का अंत कर दिया अथवा अष्ट विध कर्मों का प्रान्त कर जो सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए / सदा के लिए संसार लीला का अन्त करने वाले 'अंतगड' जीवों की साधना-दशा का वर्णन करने से ही इसका 'अंत-गडदसानो' नाम रक्खा गया है। इसके पठन, पाठन और मनन से हर भव्य जीव को अन्तक्रिया की प्रेरणा मिलती है, अतः यह परम कल्याणकारी ग्रन्थ है। उपासकदशा में एक भव से मोक्ष जाने वाले श्रमणोपासकों का वर्णन है, किन्त इस पाठवें अंग 'अन्तकृत दशा' में उसी जन्म में सिद्ध गति प्राप्त करने वाले उत्तम श्रमणों का वर्णन है। अत: परम-मंगलमय है और इसीलिये लोकजीवन में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। अन्तकृशांग सूत्र में इस प्रकार के भव्य जीवों की दशा का वर्णन किया गया है जो अन्तिम श्वासोच्छवास में निर्वाण-पद प्राप्त कर सके हैं, किन्तु आयुष्य-कर्म के शेष न होने से केवलज्ञान और केवल-दर्शन से देखे हए पदार्थों को प्रदर्शित नहीं कर सके, इसी कारण से उन्हें 'अन्तकृत् केवलो' कहा गया है। [14] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org