________________ 104] [ अन्तकृद्दशा चाहिए था। रौद्रध्यान अपने यौवन पर आ गया और उसी रौद्रध्यानपूर्ण स्थिति में श्रीकृष्ण का देहान्त हो गया। ___ "तच्चाए वालुयप्पभाए पुढवीए उज्जलिए नरए"-तृतीयस्यां बालुकाप्रभायां पुथिव्यामुज्ज्वलिते नरके-अर्थात् बालुकाप्रमानामक तोसरी पृथ्वी के उज्ज्वलित नरक में। जैन-दृष्टि से यह जगत् ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक इन तीन लोकों में विभक्त है। अधोलोक में सात नरक हैं। अधोलोक के जिन स्थानों में पैदा होकर जीव अपने पापों का फल भोगते हैं, वे स्थान नरक कहलाते हैं। ये सात पृथ्वियों में विभक्त हैं जिनके नाम हैं-धम्मा, वंसा, शैला, अंजना, रिठ्ठा, मघा तथा माघवई। इनके–रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धमप्रभा, तमःप्रभा और महातमःप्रभा ये सात गोत्र हैं। शब्दार्थ से सम्बन्ध न रखने वाली संज्ञा को 'नाम' कहते हैं और शब्दार्थ का ध्यान रख कर किसी वस्तु को जो नाम दिया जाता है वह 'गोत्र' कहलाता है। बालुकाप्रभा तीसरी भूमि है। बालुरेत अधिक होने से इसका नाम बालुकाप्रभा है / क्षेत्रस्वभाव से इसमें उष्ण वेदना होती है। यहां की भूमि जलते हुए अंगारों से भी अधिक तप्त है / कृष्ण वासुदेव बालुकाप्रभानामक तीसरो पृथ्वो में पैदा हुए / उज्ज्वलित शब्द के दो अर्थ होते हैं-पहला तीसरी भूमि का सातवाँ नरकेन्द्रक-नरकस्थान विशेष और दूसरा भीषण-भयंकर / उज्ज्वलित शब्द नरक का विशेषण है। "उस्सप्पिणीए"-उत्सपिण्याम–अर्थात् उत्सर्पिणीकाल में / जैन शास्त्रकारों ने काल को दो विभागों में विभक्त किया है, एक का नाम अवसर्पिणो ओर दूसरे का उत्सपिणो है। जिस काल में जीवों के संहनन (अस्थियों को रचनाविशेष), संस्थान, क्रमशः हीन होते चले जाएं, आयु और अवगहना घटती चली जाए, वह काल अवपिणो काल कहलाता है। इस काल में पुद्गलों के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होन होते चले जाते हैं। शुभ भाव घटते हैं, अशुभ भाव बढ़ते हैं। यह काल दस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम का है। इसके विपरीत जिस काल में जोवों के संहनन आदि क्रमशः अधिकाधिक शुभ होते चले जाते हैं, आयु और अवगाहना बढ़ती जाती है, वह उत्सपिणो काल है। पुद्गलों के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श भी इस काल में क्रमश: शुभ होते जाते हैं। यह काल भी दस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम का है। भगवान् अरिष्टनेमि ने कृष्ण वासुदेव से कहा--कृष्ण ! आने वाले उत्सर्पिणोकाल में पुण्ड्र देश के शतद्वार नगर में अमम नाम के बारहवें तीर्थकर होनोगे / प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद में भारतवर्ष में साढे 25 देशों को प्रार्य माना गया है। आर्य देश में ही अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव भोर वासुदेव को उत्पत्ति बताई गई है। यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि जिन साढे 25 देशों के नाम शास्त्रों में बतलाए गए हैं उनमें पुण्ड्र देश का नाम देखने को नहीं मिलता, ऐसी दशा में उसको आर्यदेश कैसे कह सकते हैं ? भगवान् अरिष्टनेमि के कथनानुसार वहाँ कृष्ण वासुदेव बारहवें तीर्थकर बनेंगे, तो पुग्डू देश को अनार्य भी नहीं कह सकते। यदि तीर्थकर को उत्पत्ति होने से उसे आर्य देश मानें तो फिर साढ़े 25 की गणना असंगत हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org