________________ तृतीय वर्ग ] [77 जेणेव अरहा परिढणेमी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहं अरिदम तिक्खुत्तो प्रायाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी - "इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहि अब्भणुण्णाए समाणे महाकालंसि सुसाणंसि एगराइयं महापडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ग्रहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह / तए णं से गयसुकमाले अणगारे अरहया अरिटणेमिणा अब्भणुण्णाए समाणे प्ररहं अरिदम वंदइ नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता अरहओ अरिढणेमिस्स अंतिए सहसंबवणाम्रो उज्जाणाश्रो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव महाकाले सुसाणे तेणेव उवागए, उवाच्छित्ता थंडिल्लं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता ईसि पळभारगएणं काएणं जाय [वग्घारियपाणी अणिमिसनयणे सुक्कपोग्गल-निरुद्धविट्ठी] दोवि पाए साहटु एगराई महापरिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ। श्रमणधर्म में दीक्षित होने के पश्चात् गजसुकुमाल मुनि जिस दिन दीक्षित हुए, उसी दिन के पिछले भाग में जहाँ अरिहंत अरिष्टनेमि विराजमान थे, वहाँ आये। वहाँ आकर उन्होंने भगवान नेमिनाथ की दक्षिण की ओर से तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वे इस प्रकार बोले'भगवन् ! आपकी अनुज्ञा प्राप्त होने पर मैं महाकाल श्मशान में एक रात्रि की महापडिमा (महाप्रतिमा) धारण कर विचरना चाहता हूँ।' प्रभु ने कहा-'हे देवानुप्रिय ! जिससे तुम्हें सुख प्राप्त हो वही करो।" तदनन्तर वह गजसुकुमाल मुनि अरिहंत अरिष्टनेमि की आज्ञा मिलने पर, भगवान् नेमिनाथ को वंदन नमस्कार करते हैं। वंदन-नमस्कार कर, अर्हत् अरिष्टनेमि के सान्निध्य से चलकर सहस्राम्रवन उद्यान से निकले। वहाँ से निकलकर जहाँ महाकाल श्मशान था, वहाँ आते हैं। महाकाल श्मशान में आकर प्रासुक स्थंडिल भूमि की प्रतिलेखना करते हैं। प्रतिलेखन करने के पश्चात् उच्चार-प्रस्रवण (मल-मूत्र) त्याग के योग्य भूमि का प्रतिलेखन करते हैं / प्रतिलेखन करने के पश्चात् एक स्थान पर खड़े हो अपनी देह-यष्टि को किंचित् झुकाये हुए, [हाथों को घुटनों तक लंबा करके, शुक्ल पुद्गल पर दृष्टि रखते हुए अनिमेष नेत्रों से निश्चलतापूर्वक सब इन्द्रियों को गोपन करके दोनों पैरों को (चार अंगुल के अन्तर से) एकत्र करके एक रात्रि की महाप्रतिमा अंगीकार कर ध्यान में मग्न हो जाते हैं। विवेचन-'पुत्वावरण्हकालसमयंसि-' अर्थात् दिन के पिछले आधे भाग-दोपहर से लेकर सूर्यास्त तक के काल को अपराह्म कहते हैं / दिन का तीसरा प्रहर पूर्वापराह्न कहा जाता है / काल सामान्य और समय विशिष्ट होता है / प्रस्तुत सूत्र में काल शब्द से तृतीय प्रहर तथा समय शब्द से उस विशिष्ट क्षण का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है जिसमें यह घटना घटित हुई है / __'थंडिल्लं' शब्द का अर्थ है प्रासुक भूमि, जीव-जन्तु रहित प्रदेश, निवृत्तिमय स्थान, जहाँ किसी प्रकार की कोई बाधा न हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org