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________________ तृतीय वर्ग | [75 ___ तब वे गजसुकुमाल कुमार द्वारका नगरी के मध्य से होते हुए नगरी के बाहर सहस्राम्रवन उद्यान में आये और तीर्थंकर भगवान् के छत्र आदि अतिशयों को देखते ही सहस्रपुरुषवाहिनी शिविका से नीचे उतरे / फिर गजसुकुमाल को आगे करके उनके माता-पिता, अरिहंत अरिष्टनेमि भगवान् की सेवा में उपस्थित हुए और भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा करके इस प्रकार बोले"भगवन् ! यह गजसूकुमाल कुमार हमारा इकलौता प्रिय और इष्ट पुत्र है / इसका नाम सुनना भी दुर्लभ है, तो दर्शन दुर्लभ हो इसमें तो कहना ही क्या। जिस प्रकार कीचड़ में उत्पन्न और पानी में बड़ा होने पर भी कमल, पानी और कीचड़ से निलिप्त रहता है, इसी प्रकार गजसुकुमाल कुमार भी काम से उत्पन्न हुआ और भोगों से बड़ा हुआ, परन्तु वह काम-भोगों में किंचित् भी आसक्त नहीं है / मित्र, ज्ञाति, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों में लिप्त नहीं है / भगवन् ! यह गजसुकुमाल संसार के भय से उद्विग्न हुया है, जन्म-मरण के भय से भयभीत हुआ है। यह आपके पास मूण्डित होकर अनगारधर्म स्वीकार करना चाहता है / अत: हे भगवन् ! हम आपको शिष्य रूपो भिक्षा देते हैं / आप इसे स्वीकार करें।" तत्पश्चात् भगवान् अरिष्टनेमि ने गजसुकुमाल कुमार से इस प्रकार कहा—'हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसा करो, किन्तु विलम्ब मत करो।" भगवान् के ऐसा कहने पर गजसुकुमाल कुमार हर्षित और तुष्ट हुया और भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा कर यावत् वन्दना नमस्कार कर, उत्तर पूर्व (ईशानकोण) में गया। उसने स्वयमेव आभरण माला और अलंकार उतारे / उसकी माता ने उन्हें हंस के चिह्न वाले पटशाटक (वस्त्र) में ग्रहण किया। फिर हार और जलधारा के समान प्रांसू गिराती हुई, अपने पुत्र से इस प्रकार बोली-“हे पुत्र ! संयम में यत्न करना, संयम में पराक्रम करना / संयम में किचित्मात्र भी प्रमाद मत करना।" इस प्रकार कहकर गजसुकुमाल कुमार के माता-पिता भगवान् को वन्दना-नमस्कार करके जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में वापस लौट गये। तत्पश्चात् गजसुकुमाल कुमार ने स्वयं ही पंचमुष्टि लोच किया और लोच करके जहाँ अरिहंत अरिष्टनेमि थे, वहाँ आये / प्राकर भगवान् अरिष्टनेमि को तीन बार दाहिनी ओर से प्रारंभ करके प्रदक्षिणा की। फिर वन्दन-नमस्कार किया और कहा "भगवन् ! यह संसार जरा-मरण रूप अग्नि से प्रादीप्त है, प्रदीप्त है। हे भगवन् ! यह संसार आदीप्त-प्रदीप्त है / जैसे कोई गाथापति घर में आग लग जाने पर, उस घर में जो अल्प भार वाली और बहुमूल्य वस्तु होती है उसे, ग्रहण करके स्वयं एकान्त में चला जाता है / वह सोचता है कि-"अग्नि में जलने से बचाया हुआ यह पदार्थ मेरे लिये आगे-पीछे हित के लिये, सुख के लिये, क्षमा (समर्थता) के लिये, कल्याण के लिये और भविष्य में उपयोग के लिये होगा। इसी प्रकार मेरा भी यह आत्मा रूपी भांड (वस्तु) है, जो मुझे इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है और अतिशय मनोहर है / इस आत्मा को मैं निकाल लूगा जरा-मरण की अग्नि में भस्म होने से बचा लूगा, तो यह संसार का उच्छेद करने वाला होगा। अतएव मैं चाहता हूँ कि देवानुप्रिय (आप) स्वयं ही मुझे प्रव्रजित करें-मुनिवेष प्रदान करें, स्वयं ही मुझे मुडित करें-मेरा लोच करें, स्वयं ही प्रतिलेखन आदि सिखाएँ, स्वयं ही सूत्र और उसका अर्थ प्रदान करके शिक्षा दें, स्वयं ही ज्ञानादिक आचार, गोचरी, विनय, वैनयिक (विनय का फल) चरणसत्तरी, करणसत्तरी, संयमयात्रा और मात्रा (भोजन के परिमाण) आदि रूप धर्म का प्ररूपण करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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