________________ 72] [अन्तकृद्दशा "यदि ऐसा ही है तो हे पुत्र ! हम एक दिन ही तुम्हारी राज्यश्री (राजवैभव की शोभा) देखना चाहते हैं। इसलिये तुम कम से कम एक दिन के लिये तो राजलक्ष्मी को स्वीकार करो।" तब गजसुकुमार कुमार वासुदेव कृष्ण और माता-पिता की इच्छा का अनुसरण करके चुप रह गए। इसके बाद गजसुकुमाल के पिता ने कौम्बिक पुरुषों को बुलाया और इस प्रकार कहादेवानुप्रियो ! शीघ्र ही इस द्वारका नगरी के बाहर और भीतर पानी का छिटकाव करो। झाड़-बुहार कर जमीन को साफ करो, इत्यादि औषपातिक सूत्र में कहे अनुसार कार्य करके उन पुरुषों ने प्राज्ञा वापस सौंपी।। इसके पश्चात् उसने सेवक पुरुषों से इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो ! शोघ्र गजसुकुमाल कुमार के महार्थ, महामूल्य, महार्ह (महान पूरुषों के योग्य) और विपूल राज्याभिषेक की तैयारी करो। सेवक पुरुषों ने आज्ञानुसार कार्य करके आज्ञा वापिस सौंपी। इसके पश्चात् गजसुकुमाल के माता-पिता ने उन्हें उत्तम सिंहासन पर पूर्व की ओर मुह करके वैठाया / और एक सौ आठ सुवर्ण-कलशों से राजप्रश्नीय सूत्र के अनुसार यावत् एक सौ पाठ मिट्टी के कलशों से सर्वऋद्धि द्वारा यावत् महाशब्दों द्वारा राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया। अभिषेक करके हाथ जोड़कर यावत् जय-विजय शब्दों से बधाया / बधाकर वे इस प्रकार वोले- "हे पुत्र ! हम तुझे क्या देवें? तेरे लिये क्या कार्य करें ? तेरा क्या प्रयोजन है ?" तब गजसुकुमाल ने इस प्रकार कहा -- "हे माता-पिता! मैं कुत्रिकापण (कु अर्थात् पृथ्वी, त्रिक अर्थात् तीन, आपण अर्थात् दूकान / स्वर्ग, मर्त्य और पाताल रूप तीन लोकों में रही हुई वस्तुएँ मिलने का देवाधिष्ठित स्थान,) से रजोहरण और पात्र मंगवाना तथा नापित को बुलाना चाहता हूँ / तब गजसुकुमाल के पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही भंडार में से तीन लाख सोनये निकालो। उनमें से दो लाख सोनैया देकर कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र मँगाओ और एक लाख सोनैया देकर नाई को बुलायो। उपर्युक्त आज्ञा सुनकर हर्षित और तुष्ट हुए सेवकों ने हाथ जोड़कर स्वामी के वचनों को स्वीकार किया और भंडार में से तीन लाख सुवर्ण-मुद्राएं निकालकर कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र लाए तथा नाई को बुलाया। गजसूकूमाल के पिता के सेवक पूरुषों द्वारा बुलाये जाने पर नाई बड़ा प्रसन्न हुना। उसने स्नानादि किया और अपने शरीर को अलंकृत किया। फिर गजसुकुमाल के पिता के पास आया, आकर उन्हें जय-विजय शब्दों से बधाया और इस प्रकार कहा-“देवानुप्रिय ! मेरे करने योग्य कार्य कहिये।" गजसुकुमाल के पिता ने नापित से इस प्रकार कहा—'देवानुप्रिय ! गजसुकुमाल कुमार के अग्रकेश अत्यन्त यत्नपूर्वक चार अंगुल छोड़कर निष्क्रमण के योग्य काटो।" तब गजसुकुमाल कुमार के पिता की आज्ञा सुनकर नापित अत्यंत प्रसन्न हुया और दोनों हाथ जोड़कर बोला'स्वामिन् ! जैसी आपकी प्राज्ञा' इस प्रकार कहकर विनयपूर्वक उनके वचनों को स्वीकार किया। फिर सुगन्धित गन्धोदक से हाथ-पैर धोये और शुद्ध पाठ पट वाले वस्त्र से मुह बाँधा, फिर अत्यन्त यत्नपूर्वक गजसुकुमाल कुमार के, निष्क्रमण योग्य चार अंगुल अग्रकेश छोड़कर शेष केशों को काटा। तदनन्तर गजसुकुमाल की माता ने हंस के समान श्वेत वस्त्र में उन अग्रकेशों को ग्रहण किया। सुगन्धित गन्धोदक से धोया। उत्तम और प्रधान गन्ध तथा माला द्वारा उनका अर्चन किया और शुद्ध वस्त्र में बांधकर उन्हें रत्नकरंडिये में रखा। इसके बाद गजसुकुमाल कुमार की माता, पुत्र-वियोग से रोती हुई हार, जल-धारा, सिन्दुवार वृक्ष के पुष्प और टूटी हुई मोतियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org