________________ तृतीय वर्ग 1 [63 तुमं च णं जाया! सुहसमुचिए नो चेव णं दुहसमुचिए, नालं सीयं नालं उण्हं नालं खुहं नालं पिवासं नालं वाइय-पित्तिय-सिभिय-सन्निवाइए विविहे रोगायके, उच्चावए गामकंटए, बावीसं परीसहोवसग्गे उदिण्णे सम्म अहियासित्तए / तं भुजाहि ताव जाया! माणुस्सए कामभोगे / तओ पच्छा भुत्तभोगी प्ररहयो अरिट्टनेमिस्स अंतिए मुडे भवित्ता अगाराप्रो अणगारियं पञ्चइस्ससि / / तए णं से गयसकुमाले कुमारे अम्मापिओह एवं वुत्ते समाणे अम्मापियरं एवं क्यासी- तहेव णं तं अम्मयानो! जंणं तुम्भे ममं एवं वयह--"एस णं जाया! निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे पुणरवि तं चेव जाव तो पच्छा भुत्तभोगी अरहो अरिटुनेमिस्स अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराम्रो अणगारियं पन्वइस्ससि / " एवं खलु अम्मयाप्रो! निग्गंथे पावयणे कोवाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोगपडिबद्धाणं परलोगनिप्पिवासाणं दुरणुचरे पाययजणस्स, नो चेव णं धीरस्स / निच्छियववसियस्स एत्थ कि दुक्करं करणयाए ? तं इच्छामि णं अम्मयाओ ! तुम्भेहि अभणण्णाए समाणे अरहओ रिट्टनेमिस्स अंतिए मुंडे भवित्ता अगारानो प्रणगारियं पव्वहत्तए।] तए णं से कण्हे वासुदेवे इमोसे कहाए लट्ठ समाणे जेणेव गयसुकुमाले तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गयसुकुमालं प्रालिंगइ, आलिगित्ता उच्छंगे निवेसेइ, निवेसेत्ता एवं क्यासी-'तुम मम सहोदरे कणीयसे भाया। तं मा णं तुम देवाणुप्पिया! इयाणि अरहो अरिट्टनेमिस्स अंतिए मुंडे जाव [भवित्ता अगाराओ प्रणगारियं] पब्वयाहि / अहणं तुमे बारवईए नयरीए महया-महया रायाभिसेएणं अभिसिंचिस्सामि।' तए णं से गयसुकुमाले कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वृत्त समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ / तए णं से गयसुकुमाले कण्हं वासुदेवं अम्मापियरो य दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासो एवं खलु देवाणुप्पिया ! माणुस्सया काम [भोगा प्रसुई वंतासवा पित्तासवा] खेलासवा जाव [सक्कासवा सोणियासवा दुरूय-उस्सास नीसासा दुख्य-मुत्त-पुरीस-पूय-बहुपडिपुण्णा उच्चार-पासवणखेल-सिंघाणग-वंत-पित्त-सुक्क-सोणियसंभवा अधुवा अणितिया प्रसासया सडण-पडण-विद्धसणधम्मा पच्छा पुरं च णं अवस्स] विपनाहियव्वा भविस्संति, तं इच्छामि गं देवाणुप्पिया ! तुम्भेहि प्रभYण्णाए समाणे प्ररहयो अरिठ्ठनेमिस्स अंतिए जाव [मुंडे भवित्ता अगाराप्रो अणगारियं] पव्वइत्तए। उस समय भगवान् अरिष्टनेमि ने कृष्ण वासुदेव और गजसुकुमार कुमार प्रमुख उस सभा को धर्मोपदेश दिया। प्रभु की अमोघ वाणी सुनने के पश्चात् कृष्ण अपने आवास को लौट गये। तदनन्तर गजमुकुमार कुमार भगवान् श्री अरिष्टनेमि के पास धर्मकथा सुनकर विरक्त होकर बोलेभगवन् ! माता-पिता से पूछकर मैं आपके पास दोक्षा ग्रहण करूंगा। मेघ कुमार की तरह, विशेष रूप से माता-पिता ने उन्हें महिलावर्ज (अविवाहित अवस्था-अर्थात् विवाह और) वंशवृद्धि होने के बाद दीक्षा ग्रहण करने को कहा। [तत्पश्चात् गजसुकुमाल (र) कुमार ने अरिहंत अरिष्टनेमि स्वामी के पास से धर्म-श्रवण करके और उसे हृदय में धारण करके, हृष्ट-तुष्ट होकर अरिहंत अरिष्टनेमि स्वामी को तीन बार दाहिनी ओर से प्रारम्भ करके प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा--"भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ, उसे सर्वोत्तम स्वीकार करता हूँ। मैं उस पर प्रतीति करता हूँ। मुझे निम्रन्थ-प्रवचन रुचता है, अर्थात् जिनशासन के अनुसार आचरण करने की अभिलाषा करता हूँ। भगवन् ! मैं निम्रन्थप्रवचन को अंगीकार करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org