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________________ 22] / स्थानाङ्गसूत्रम् समापन्नक-अगति-समापन्नक, प्राहारक-अनाहारक, उच्छ्वासक-नोउच्छ्वासक, संजी-प्रसंजी आदि दो-दो अवस्थानों का वर्णन किया गया है। तदनन्तर अधोलोक आदि तीनों लोकों में जानने के दो दो स्थानों का, शब्दादि को ग्रहण करने के दो स्थानों का वर्णन कर प्रकाश, विक्रिया, परिवार, विषय-सेवन, भाषा, आहार, परिगमन, बेदन और निर्जरा करने के दो दो स्थानों का वर्णन किया गया है। अन्त में मरुत आदि देवों के दो प्रकार के शरीरों का निरूपण किया गया है। तृतीय उद्देश का सार दो प्रकार के शब्द और उनकी उत्पत्ति, पुद्गलों का सम्मिलन, भेदन, परिशाटन, पतन, विध्वंस, स्वयंकृत और परकृत कहकर पुद्गल के दो दो प्रकार बताये गये हैं / तत्पश्चात् आचार और उसके भेद-प्रभेद, बारह प्रतिमाओं का दो दो के रूप में निर्देश, सामायिक के प्रकार, जन्म-मरण के लिए विविध शब्दों का प्रयोग, मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के गर्भ-सम्बन्धी जानकारी, कास्थिति और भवस्थिति का वर्णन कर दो प्रकार की आयु, दो प्रकार के कर्म, निरुपक्रम और सोपक्रम आयु भोगने वाले जीवों का वर्णन किया गया है। तदनन्तर क्षेत्रपद, पर्वतपद, गुहापद, कुटपद, महाद्रहपद, महानदीपद, प्रपातद्रहपद, कालचक्रपद, शलाकापुरुष-वंशपद, शलाकापुरुषपद, चन्द्रसूरपद, नक्षत्रपद, नक्षत्रदेवपद, महाग्रहपद, और जम्बूद्वीप-वेदिकापद के द्वारा जम्बूद्वीपस्थ क्षेत्र-पर्वत आदि का तथा नक्षत्र आदि का दो-दो के रूप में विस्तृत वर्णन किया गया है। पुनः लवण समुद्रपद के द्वारा उसके विष्कम्भ और वेदिका के प्रमाण को बताकर धातकीषण्डपद के द्वारा तद्-गत क्षेत्र, पर्वत, कूट, महाद्रह, महानदी, बत्तीस विजयक्षेत्र, बत्तीस नगरियां, दो मन्दर आदि का विस्तृत वर्णन, अन्त में धातकीषण्ड की वेदिका और कालोद समुद्र की वेदिका का प्रमाण बताया गया है। तत्पश्चात् पुष्करवर पद के द्वारा वहां के क्षेत्र, पर्वत, नदी, कुट, प्रादि धातकीषण्ड के समान दो दो जानने की सूचना दी गई है। पुनः पुष्करवर द्वीप की वेदिका की ऊंचाई और सभी द्वीपों और समुद्रों की वेदिकानों की ऊंचाई दो दो कोश बतायी गयी है। अन्त में इन्द्रपद के द्वारा भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पवासी देवों के दो दो इन्द्रों का निरूपण कर विमानपद में विमानों के दो दो वर्गों का वर्णन कर वेयकवासी देवों के शरीर की ऊंचाई दो रत्नि प्रमाण कही गयी है। चतुर्थ उद्देश का सार इस उद्देश में जीवाजीवपद के द्वारा समय, पावलिका से लेकर उत्सपिणी-अवसर्पिणी पर्यन्त काल के सभी भेदों को, तथा ग्राम, नगर से लेकर राजधानी तक के सभी जन-निवासों को, सभी प्रकार के उद्यान-वनादि को, सभी प्रकार के कूप-नदी आदि जलाशयों को, तोरण, वेदिका, नरक, नारकावास, विमान-विमानावास, कल्प, कल्पावास और छाया-पातप आदि सभी लोकस्थित पदार्थों को जीव और अजीव रूप बताया गया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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